वाकाटक राजवंश
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⦿ वाकाटक राजवंश की स्थापना 255 ई . के लगभग विन्ध्यशक्ति नामक व्यक्ति ने की थी । इसके पूर्वज सातवाहनों के अधीन बरार ( विदर्भ ) के स्थानीय शासक थे ।
⦿ विन्ध्यशक्ति के पश्चात उसका पुत्र प्रवरसेन प्रथम ( 275 - 335 ई . ) शासक हुआ । वाकाटक वंश का वह अकेला ऐसा शासक था जिसने सम्राट की उपाधि धारण की थी । पुराणों से पता चलता है कि इसने चार अश्वमेध यज्ञ किया था ।
⦿ प्रवरसेन के पश्चात वाकाटक साम्राज्य दो शाखाओ में विभक्त हो गया — प्रधान शाखा तथा बासीम ( वरसगुल्म ) शाखा । दोनों शाखाएँ समानान्तर रूप से शासन किया ।
⦿ प्रधान शाखा के प्रमुख राजा - रूद्रसेन प्रथम ( 335 - 360इ . ) , प्रभावती गुप्ता का संरक्षण काल ( 390 - 410 ) , प्रवरसेन द्वितीय ( 410 - 440 ई . ) , नरेन्द्र सेन ( 440 - 460ई . ) , पृथ्वीसेन द्वितीय ( 460 - 480 ई . ) ।
⦿ गुप्त शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय से किया । वाकाटकों का राज्य गुप्त एवं शक राज्यों के बीच था । राज्यों पर विजय प्राप्त करने के लिए चन्द्रगुप्त - II ने इस संबंध को स्थापित किया था । बिवाह के कुछ समय बाद रूद्रसेन द्वितीय की मृत्यु हो गई । चूँकि उसके दोनों पुत्र दिवाकर सेन एवं दमोदर सेन अवयस्क थे अतः प्रभावतीगुप्ता ने शासन संभाला । यह काल वाकाटक- गुप्त संबंध का स्वर्णकाल रहा ।
⦿ प्रभावतीगुप्ता के संरक्षण काल के बाद उसका कनिष्ठ पुत्र दमोदर सेन प्रवरसेन द्वितीय के नाम से गद्दी पर बैठा ।
⦿ पृथ्वीसेन द्वितीय वाकाटकों की प्रधान शाखा का अंतिम शासक था । उसके बाद उसका राज्य बासीम शाखा ( वरसगुल्म ) के हरिषेण के हाथों में चला गया ।
बासीम शाखा के वाकाटक
⦿ वाकाटक वंश की इस शाखा की स्थापना 330 ई . में सम्राट प्रवरसेन के छोटे पुत्र सर्वसेन ने की थी । उसने वत्सगुल्म नामक स्थान पर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की । वत्सगुल्म महाराष्ट्र के अकोला जिले में आधुनिक बासीम में स्थित था ।
⦿ बासीम शाखा के प्रमुख राजा : सर्वसेन , विन्ध्यशक्ति द्वितीय ( 350 400 ई . ) , प्रवरसेन द्वितीय ( 400 - 415ई . ) , हरिषेण ( 475 - 510ई . ) ।
⦿ हरिषेण बासीम शाखा का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था । यह वाकाटक वंश का अंतिम ज्ञात शासक है ।
⦿ वाकाटक वंश के राजा प्रवरसेन द्वितीय ने मराठी प्राकृतकाव्य ' सेतुबन्ध ' की रचना की तथा सर्वसेन ने ' हरिविजय ' नामक प्राकृत काव्य - ग्रंथ लिखा ।
⦿ संस्कृत की वैदर्भी शैली का पूर्ण विकास वाकाटक नरेशों के दरबार में हुआ ।
⦿ कुछ विद्वानों का मत है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय के राजकवि कालिदास ने कुछ समय तक प्रवरसेन द्वितीय की राजसभा में निवास किया था । वहाँ उन्होंने उसके सेतुबन्ध का संशोधन किया तथा वैदर्भी शैली में अपना काव्य मेघदूत लिखा ।
⦿ वाकाटक नरेश ब्राह्मण धर्मालंबी थे । वे शिव और विष्णु के अनन्य उपासक थे ।
⦿ वाकाटक नरेश पृथ्वीसेन द्वितीय के सामन्त व्याध्रदेव ने नचना के मंदिर का निर्माण करवाया ।
⦿ अजन्ता का सोलहवॉ तथा सत्रहवाँ गुहा विहार और उन्नीसवें गुहा चैत्य का निर्माण वाकटकों के शासन काल में हुआ ।
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