अर्थशास्त्र परीक्षोपयोगी तथ्य

नमस्कार दोस्तों Sarkaripen.com में आप लोगो का स्वागत है क्या आप अर्थशास्त्र परीक्षोपयोगी तथ्य की जानकारी पाना चाहते है , आज के समय किसी भी नौकरी की प्रतियोगिता की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण विषय है तथा Arthshastra pariksha upyogi tathya in hindi की जानकारी होना बहुत आवश्यक है , इसलिए आज हम Arthshastra pariksha upyogi fects के बारे में बात करेंगे । निचे Economics test facts की जानकारी निम्नवत है ।

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अर्थशास्त्र की परिभाषा

रॉबिन्स : अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जोकि लक्ष्यों एवं वैकल्पिक उपयोगों वाले सीमित साधनों के परस्पर सम्बन्धों के रूप में मानव व्यवहार का अध्ययन करता है ।

मार्क्स : अर्थशास्त्र का उद्देश्य मानव समाज की प्रगति के नियम की खोज करना है ।

बेनहम : अर्थशास्त्र उन तत्वों का अध्ययन है जो रोजगार और जीवन - स्तर को प्रभावित करते हैं ।

प्रो . फ्रैडमैन : अर्थशास्त्र कभी वास्तविक विज्ञान होता है और कभी आदर्श विज्ञान ।

महत्वपूर्ण सिद्धान्त

ऐंगल का सिद्धान्त : इस सिद्धान्त के अनुसार एक परिवार की आय बढ़ने पर उसका खाने पीने की वस्तुओं पर खर्च का प्रतिशत कम हो जाता है ।

ग्रेशम का नियम : यदि किसी देश में घटिया और बढ़िया दो प्रकार की मुद्राएँ एक साथ चलन में हो तो घटिया मुद्राएँ बढ़िया मुद्राओं को चलन से बाहर कर देती है ।

उत्पत्ति ह्रास का नियम : यदि किसी वस्तु के उत्पादन में किसी एक परिवर्तनशील साधन की मात्रा में वृद्धि की जाए तथा अन्य साधनों को स्थिर रखा जाए , तो एक निश्चित बिन्दु के पश्चात परिवर्तित साधन की अतिरिक्त मात्राओं से प्राप्त सीमान्त उत्पादन घटता चला जाता है । इस प्रवृत्ति को अर्थशास्त्र में उत्पत्ति ह्रास नियम का ह्रासमान प्रतिफल का सिद्धान्त कहते हैं । परिवर्तित साधन की मात्रा में वृद्धि करने पर सीमान्त उत्पादन में आनुपातिक दृष्टि से तीन प्रकार की प्रवृत्तियाँ देखने को मिलती हैं — सीमांत उत्पादन घट जाए या समान रहे या बढ़ जाए । आधुनिक अर्थशास्त्री इन तीनों अवस्थाओं को सम्मिलित रूप से परिवर्तनशील अनुपातों का सिद्धान्त कहते हैं । उत्पत्ति ह्रास नियम पर आधारित अन्य नियम हैं -

1 . माल्थस का जनसंख्या सिद्धान्त 
2 . रिकॉर्डो का लगान सिद्धान्त 
3 . सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त । कृषि क्षेत्र में उत्पत्ति ह्रास का नियम शीघ्रता से लागू होता है , क्योंकि कृषि - क्षेत्र में श्रम - विभाजन का अभाव होता है ।

कुछ प्रमुख कथन
अर्थशास्त्र चुनाव का विज्ञान है रॉबिन्स
अर्थशास्त्र वास्तविक विज्ञान है रॉबिन्स
अर्थशास्त्र आदर्श विज्ञान है मार्शल
अर्थशास्त्री का कार्य विश्लेषण करना है , निन्दा करना नहीं रॉबिन्स
आवश्यकता विहीनता का लक्ष्य सुख प्रदान करता है जे . के . मेहता

कीन्स का रोजगार सिद्धान्त : इन्होंने 1936 में प्रकाशित अपनी पुस्तक जेनरल थ्योरी ऑफ इम्प्लायमेंट , इन्टरेस्ट एण्ड मनी की प्रस्तावना में ' से ' के बाजार नियम पर घातक प्रहार किया और प्रतिष्ठित विचारधारा को अस्वीकृत करते हुये रोजगार का एक क्रमबद्ध तथा व्यवस्थित सिद्धान्त प्रस्तुत किया । कीन्स के अनुसार अर्थव्यवस्था में रोजगार का स्तर कुल उत्पादन की मात्रा पर निर्भर करता है । कुल उत्पादन मात्रा प्रभावपूर्ण मांग की मात्रा पर निर्भर करती है । अर्थात रोजगार की मात्रा प्रभावपूर्ण मांग पर निर्भर करती है । पूँजीवादी अर्थव्यस्था में प्रभावपूर्ण मांग या समर्थ मांग में कमी से बेरोजगारी उत्पन्न होती है ।

' से ' का बाजार नियम
⦿ पूर्ति स्वयं अपनी मांग उत्पन्न करती है । यह नियम वस्तु विनियम और मुद्रा विनिमय दोनों पर लागू होते हैं । इसके अनुसार अर्थव्यवस्था में सामान्य अत्युत्पादन के फलस्वरूप सामान्य बेरोजगारी संभव नहीं है ।

कीन्स के रोजगार का तार्किक प्रारंभिक बिन्दु समर्थ मांग का सिद्धान्त है । इनके अनुसार समर्थ के निर्धारक तत्व दो हैं - 1 . समग्र मांग फलन ( ADF ) एवं 2 . समग्र पूर्ति फलन ( ASF ) । किसी अर्थव्यवस्था में ASF उद्यमियों की कुल लागतों तथा ADF उनकी कुल प्राप्तियों का प्रतिनिधित्व करती है । कीन्स के अनुसार अवसाद से किसी अर्थव्यवस्था को बाहर निकालने के लिए यह आवश्यक है कि सरकार राजकोषीय नीति का सहारा ले तथा सार्वजनिक व्यय में वृद्धि लाये । रोजगार बढ़ाने के लिए कीन्स ने लचीली मजदूरी नीति के बदले लचीली मुद्रा नीति का समर्थन किया ।

नोट : अर्थव्यवस्था में वह मांग समर्थ मांग होती है जहाँ अर्थव्यवस्था में रोजगार स्तर ( N ) , उत्पादन स्तर ( O ) तथा आय स्तर ( Y ) तीनों बराबर हो ।

नकदी लेन - देन सिद्धान्त : इसका प्रतिपादन फिशर ने किया था । इस सिद्धान्त के अनुसार मुद्रा का परिमाण ही कीमत स्तर अथवा मुद्रा के मूल्य का मुख्य निर्धारक है । फिशर के अनुसार , यदि अन्य चीजें स्थिर रहें , तो ज्यों - ज्यों मुद्रा - संचलन की मात्रा बढ़ती है त्यों - त्यों कीमत स्तर भी प्रत्यक्ष अनुपात में बढ़ता है और मुद्रा का मूल्य भी घटता जाता है और विलोमशः भी । यदि मुद्रा की मात्रा दुगुनी कर दी जाये तो कीमत स्तर भी दुगुना हो जायेगा और मुद्रा का मूल्य आधा हो जायेगा और ठीक इसके विपरीत यदि मुद्रा की मात्रा घटकर आधी हो जाये तो कीमत स्तर गिरकर आधा रह जायेगा और मुद्रा का मूल्य दुगुना हो जायेगा ।

उत्पादन फलन

⦿ उत्पादन के साधनों तथा उत्पाद की मात्रा में सम्बन्ध को उत्पादन फलन कहते हैं । यह साधनों तथा उत्पाद के बीच तकनीकी सम्बन्ध को प्रकट करता है ।

⦿ जब कुल उत्पादन अधिकतम होता है तो सीमान्त उत्पाद शून्य होता है ।

⦿ सामान्त उत्पाद शून्य और ऋणात्मक हो सकता है लेकिन औसत उत्पाद न तो कभी शून्य हो सकता है और न ही ऋणात्मक ।

⦿ औसत तथा सीमान्त उत्पाद वक्र एक दूसरे को उस बिन्दु पर काटते हैं जहाँ पर औसत उत्पाद अधिकतम होता है । लेकिन इस बिन्दु पर सीमान्त उत्पाद वक्र नीचे की ओर गिरता हुआ होता है 

कुल , औसत तथा सीमान्त उत्पादनों में परिवर्तन की अवस्थाएँ

उत्पाद पहली अवस्था दूसरी अवस्था तीसरी अवस्था
कुल उत्पाद बढ़ता है बढ़ताहै , अधिकतम हो जाता है गिरता है
औसत उत्पाद बढ़ता है और अंत में अधिकतम हो जाता है गिरता है गिरता है
सीमान्त उत्पाद पहले बढ़ता है फिर गिरना प्रारंभ कर देता है गिरता है तथा शून्य हो जाता है गिरता है तथा ऋणात्मक हो जाता है

कॉब - डगलस उत्पादन फलन

इस उत्पादन फलन को कॉब और डगलस नामक दो अर्थशास्त्रियों ने प्रतिपादित किया था इसलिए यह फलन उनके नाम से जाना जाता है । यह फलन रेखीय समरूप उत्पादन फलन का एक रूप है , इसकी महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्न है -

⦿ इस उत्पादन फलन के अनुसार वस्तु का उत्पादन करने के लिए दोनों साधनों - श्रम व पूँजी का प्रयोग होना आवश्यक है । यदि इनमें से किसी एक साधन का प्रयोग नहीं होता तो वस्तु का उत्पादन शून्य होगा ।

⦿ इस फलन के अनुसार यदि एक साधन स्थिर रहने पर दूसरे साधन की मात्रा बढ़ाई जाती है तो परिवर्तनशील साधन की सीमान्त उत्पादकता घटती है ।

⦿ इस फलन के अनुसार पैमाने के प्रतिफल स्थिर प्राप्त होते हैं अर्थात् श्रम तथा पूँजी को किसी अनुपात में बढ़ाने से वस्तु का उत्पादन भी उसी अनुपात में बढ़ता है ।

⦿ इस फलन के अनुसार तकनीकी प्रतिस्थापन की लोच इकाई के बराबर होती है ।

अर्थशास्त्र : प्रमुख पुस्तक

पुस्तक लेखक
वेल्थ ऑफ नेशन्स एडम स्मिथ
फाउंडेशन ऑफ इकोनोमिक एनालिसिस सैम्युल्सन
प्रिंसिपल्स ऑफ इकोनोमिक्स मार्शल
नेचर एण्ड सिग्नीफिकेन्स ऑफ इकोनोमिक साइंस रॉबिन्स
दास कैपिटल कार्ल मार्क्स
द थ्योरी ऑफ इम्प्लायमेंट इन्टरेस्ट एण्ड मनी जे . एम . केन्ज
जेनरल थ्योरी ऑफ इम्प्लायमेंट इन्टरेस्ट एण्ड मनी कीन्स
हाऊ टू पे फॉर वार कीन्स

मांग

⦿ प्रभावपूर्ण इच्छा ही मांग है ।

⦿ यदि अन्य बातें सामान्य रहें तो मूल्य बढ़ने से मांग घटती है और मूल्य घटने से मांग बढ़ती है ।

⦿ गिफिन वस्तुओं में मांग का नियम लागू नहीं होता है ।

⦿ मांग की लोच = मांग में आनुपातिक परिवर्तन / मूल्य में आनुपातिक परिवर्तन 

गिफिन वस्तुएँ : गिफिन वस्तुएँ निम्न कोटि की वस्तुएँ होती हैं । मूल्य में वृद्धि होने पर गिफिन वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है तथा मूल्य में कमी होने पर इसकी मांग कम हो जाती है । इस विरोधाभास को गिफिन विरोधाभास की संज्ञा प्रदान की गयी है ।

⦿ आवश्यक वस्तुओं की मांग बेलोचदार , आरामदायक वस्तुओं की मांग लोचदार तथा विलासिता संबंधी वस्तुओं की मांग अत्यधिक लोचदार होती है ।

⦿ जब किसी वस्तु के स्थानापन्न उपलब्ध होते हैं तो उसकी मांग लोचदार होती है ।

⦿ वस्तु के वैकल्पिक प्रयोग संभव होने पर मांग लोचदार होती है ।

⦿ पूरक वस्तुओं की मांग बेलोचदार होती है ।

⦿ यदि समाज में धन का असमान वितरण है तो मांग की लोन बेलोच होती है जबकि धन का समान वितरण होने पर मांग की लोच अत्यधिक लोचदार होती है ।

⦿ मार्शल के अनुसार मांग की लोच को समय तत्व भी प्रभावित करता है । कीमत की मांग पर होनेवाली प्रतिक्रिया की अवधि जितनी कम होगी , मांग की लोच उतनी बेलोच होगी । इसके विपरीत , समय की अवधि जितनी अधिक होगी , मांग की लोच उतनी ही लोचदार होगी ।

⦿ जिन वस्तुओं पर व्यय किया जाने वाला प्रतिशत बहुत अधिक होता है उनकी मांग लोचदार होती है तथा जिन पर आय का बहुत थोड़ा भाग व्यय किया जाता है उनकी मांग बेलोचदार होती है ।

मुद्रा के मूल्य में परिवर्तन

मुद्रा - मूल्य में होने वाले परिवर्तनों के मुख्य चार रूप होते हैं -

1 . मुद्रास्फीति ( Inflation ) 
2 . अवस्फीति अथवा मुद्रा - संकुचन ( Deflation ) 
3 . मुद्रा - संस्फीति ( Reflation ) 
4 . मुद्रा - अपस्फीति ( Disinflation )

मुद्रास्फीति ( Inflation )

⦿ मुद्रास्फीति वह स्थिति है जिसमें कीमत स्तर में वृद्धि होती है तथा मुद्रा का मूल्य गिरता है । यानी मुद्रास्फीति वह अवस्था है जब वस्तुओं की उपलब्ध मात्रा की तुलना में मुद्रा तथा साख की मात्रा में अधिक वृद्धि होती है और परिणामस्वरूप मूल्य स्तर में निरन्तर व महत्वपूर्ण वृद्धि होती है जिससे वस्तुएँ महँगी हो जाती हैं । इसमें देनदार को हानि होती है एवं लेनदार यानी ऋणी को लाभ होता है । भारत में मुद्रा स्फीति थोक मूल्य सूचकांक के द्वारा मानी जाती है । मुद्रा आपूर्ति की वृद्धि पर नियंत्रण कर मुद्रा स्फीति को स्थायी रूप से नियंत्रित किया जा सकता है ।

⦿ कीन्स के अनुसार वास्तविक मुद्रास्फीति पूर्ण रोजगार बिन्दु के बाद ही उत्पन्न होती है । पूर्ण रोजगार बिन्दु से पूर्व उत्पन्न होने वाली स्फीति आंशिक स्फीति कहलाती है , जो प्रेरणात्मक होती है ।

⦿ मुद्रास्फीति से अभिप्राय बढ़ती हुई कीमतों के क्रम से है , न कि बढ़ी हुई कीमतों की स्थिति से ।

⦿ अत्यधिक मुद्रा निर्गमन से उत्पन्न स्फीति को चलन स्फीति कहते हैं ।

⦿ उदार ऋण नीति के फलस्वरूप व्यापारिक बैंकों द्वारा अत्यधिक साख निर्गमन के कारण उत्पन्न स्फीति को साख स्फीति कहा जाता है ।

⦿ वस्तुओं एवं सेवाओं की तेजी से बढ़ती मांग के फलस्वरूप तेजी से बढ़ती मुद्रा की सक्रियता के कारण बढ़ने वाली कीमते मांग प्रेरित स्फीति उत्पन्न करती हैं ।

⦿ वस्तुओं की उत्पादन लागत बढ़ जाने के कारण जब वस्तुओं की कीमतों को बढ़ाया जाता है तब इसे लागत प्रेरित स्फीति कहा जाता है ।

⦿ बजट के घाटे को पूरा करने के लिए हीनार्थ प्रबन्धन के अन्तर्गत नये नोटों को छापा जाना मुद्रा की पूर्ति का विस्तार करता है , जिससे कीमतों में वृद्धि होती है । इसे हीनार्थ प्रेरित स्फीति या बजटीय स्फीति कहा जाता है 

⦿ अवमूल्यन के फलस्वरूप निर्यात बढ़ने तथा देश में आन्तरिक पूर्ति घट जाने से वस्तुओं की कीमतें बढ़ने लगती हैं जिससे अवमूल्यन जनित स्फीति उत्पन्न होती है ।

⦿ खुली मुद्रा स्फीति में समाज की बढ़ती हुई आय के उपभोग पर कोई नियंत्रण नहीं लगाया जाता जबकि दबी मुद्रास्फीति में उपभोग की मात्रा पर नियंत्रण लगा दिया जाता है ।

मुद्रास्फीति का प्रभाव

⦿ उत्पादक वर्ग ( कृषक , उद्योगपति , व्यापारी ) को लाभ होता है ।

⦿ ऋणी को लाभ तथा ऋणदाता को हानि होती है ।

⦿ निश्चित आय वाले वर्ग को हानि होती है जबकि परिवर्तित आय वाले वर्ग को लाभ होता है ।

⦿ समाज में आर्थिक विषमताएँ बढ़ जाती हैं धनी वर्ग और धनी तथा निर्धन वर्ग और निर्धन होता चला जाता है ।

⦿ व्यापार संतुलन विपक्ष में हो जाता है क्योंकि आयात में वृद्धि तथा निर्यात में कमी हो जाती है ।

मुद्रा प्रसार के लिए उत्तरदायी सरकार की नीतियाँ

⦿ हीनार्थ प्रबन्धन

⦿ अतिरिक्त मुद्रा निर्गमन

⦿ उदार ऋण एवं साख नीति

⦿ युद्ध - जनित अनुत्पादक व्यय

⦿ प्रतिगामी कराधान नीति

⦿ प्रशुल्क एवं व्यापार नीति

⦿कठोर उद्योग नीति

मुद्रास्फीति  को नियंत्रित करने के उपाय

राजकोषीय उपाय

⦿ संतुलित बजट बनाना

⦿ सार्वजनिक व्यय विशेषकर अनुत्पादक व्यय पर नियंत्रण रखना

⦿ प्रगतिशील करारोपण

⦿ सार्वजनिक ऋण में वृद्धि करना

⦿ बचत को प्रोत्साहित करना

⦿ उत्पादन में वृद्धि करना

मौद्रिक उपाय

⦿ मुद्रा निर्गमन के नियमों को कठोर बनाना

⦿ मुद्रा की मात्रा को संकुचित करना

⦿ कठोर साख नीति अपनाना

मुद्रा - संकुचन अथवा मुद्रा अवस्फीति ( Deflation )

⦿ यह मुद्रास्फीति की विपरीत अवस्था है । इसमें मुद्रा का मूल्य बढ़ता है और वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य घटता है ।

⦿ प्रो . पीगू के अनुसार मुद्रा संकुचन के दो प्रमुख लक्षण हैं -
1 . उत्पादन में वृद्धि मुद्रा की मात्रा से अधिक होती है ।
2 . मूल्यों में गिरावट आती रहती है ।

⦿ मुद्रा - संकुचन निम्न परिस्थितियों में दृष्टिगोचर होता है -
1 . मौद्रिक आय यथावत अथवा गिरती रहे पर वस्तुओं का उत्पादन बढ़े 
2 . मौद्रिक आय तथा उत्पादन दोनों घटे परन्तु मौद्रिक आय में कमी अधिक हो 
3 . मौद्रिक आय तथा उत्पादन दोनों बढ़े परन्तु उत्पादन में वृद्धि अपेक्षाकृत अधिक हो 
4 . उत्पादन यथावत रहे परन्तु मौद्रिक आय घटे 
5 . जब वस्तुओं की पूर्ति मांग से अधिक हो ।

मुद्रा - संकुचन को रोकने का उपाय

मौद्रिक उपाय

⦿ मुद्रा का अधिक निर्गमन

⦿ साख मुद्रा का विस्तार

राजकोषीय उपाय

⦿ सार्वजनिक व्यय में वृद्धि

⦿ करारोपण में कमी

⦿ ऋणों का भुगतान

⦿ आर्थिक सहायता एवं अनुदान में वृद्धि

अन्य उपाय

⦿ निर्यात में वृद्धि तथा आयात में कमी

⦿ पूर्ति पर नियंत्रण

मुद्रा अवस्फीति अर्थव्यवस्था में आर्थिक क्रियाओं को समाप्त करके बेराजगारी बढ़ाती है , जिससे सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था निष्क्रिय एवं निर्जीव होकर मंदी के दौर में फंस जाती है ।

मुद्रा - संस्फीति ( Reflation )

⦿ वह प्रक्रिया है जिसमें जान - बूझकर मुद्रा और साख की मात्रा में वृद्धि करके वस्तु मूल्यों में वृद्धि का प्रयास किया जाता है । संस्फीति प्रायः अर्थव्यवस्था में व्याप्त मंदी से छुटकारा प्राप्त करने के लिए किया जाता है ।

नोट : मुद्रास्फीति और संस्फीति की प्रकृति लगभग एक सी होती है । दोनों में ही मुद्रा की मात्रा बढ़ती है तथा कीमतों में वृद्धि होती है , परन्तु दोनों में कुछ महत्वपूर्ण अंतर होता है । संस्फीति जान - बूझकर नियंत्रणात्मक रूप में बिगड़ी हुई स्थिति को सुधारने के लिए अपनायी जाती है जबकि मुद्रास्फीति प्रायः अनियन्त्रित एवं परिस्थितिजन्य होती है ।

मुद्रा अपस्फीति ( Disinflation )

⦿ मुद्रा अपस्फीति के अन्तर्गत वे सब क्रियाएँ , नीतियाँ व उपाय आते हैं जो मुद्रास्फीति के वेग को रोकने के लिए किये जाते हैं ।

मुद्रा अपस्फीति एवं मुद्रा - संकुचन में तुलना

⦿ मुद्रा - संकुचन या विस्फीति देश में मंदी की स्थिति उत्पन्न करती है । जबकि मुद्रा अपस्फीति कीमत स्तर को सामान्य अवस्था में लाने के लिए की जाती है ।

⦿ मुद्रा अपस्फीति नियोजित रूप में एक निर्धारित नीति के अनुसार की जाती है जबकि मुद्रा - संकुचन स्वयं उत्पन्न होती है ।

⦿ मुद्रा अपस्फीति देश की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए होती है जबकि मुद्रा - संकुचन से देश को हानि होती है ।

⦿ मुद्रा - संकुचन एवं मुद्रा अपस्फीति दोनों ही गिरती हुई कीमतों का सूचक है तथा दोनों की प्रकृति लगभग एक - सी होती है ।

गतिहीन स्फीति या निस्पंद स्थिति ( Stagflation or Slumpflation )

⦿ यह उस स्थिति का द्योतक है जब अर्थव्यस्था में तो एक ओर कीमतें बढ़ती हैं तथा दूसरी ओर आर्थिक विकास अवरुद्ध होकर अर्थव्यवस्था में निष्कियता और जड़ता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । अर्थात् इसमें आर्थिक निष्कियता अथवा विकास में स्थिरता तथा स्फीति एक साथ मौजूद रहते हैं ।

⦿ निःस्पंद स्फीति में मुद्रास्फीति , महंगाई , बेरोजगारी तथा उत्पादन में जड़ता साथ - साथ विद्यमान रहते है । सैम्युल्सन के शब्दों में , " निःस्पंद स्फीति एक नई बीमारी है जिसमें वस्तुओं के मूल्यों तथा मजदूरी की दरों में वृद्धि होती है , किन्तु साथ - ही - साथ बेरोजगारी में भी वृद्धि होती है और उत्पादित किया हुआ माल बिकना कठिन हो जाता है ।

निःस्पंद स्फीति उत्पन्न होने के कारण

⦿ मुद्रा की मात्रा में तेजी से वृद्धि

⦿ मजदूरी दरों में तीव्र वृद्धि

⦿ प्राकृतिक प्रकोप

⦿ विदेशी व्यापार में घाटा

⦿ उत्पादन लागत में वृद्धि

⦿ लम्बे समय तक मुद्रास्फीति की स्थिति का बने रहना

लॉरेज वक्र ( Lorentz Curve ) : आय के वितरण में व्याप्त विषमताओं को प्रदर्शित करने वाले वक्र को लॉरेंज वक्र कहते हैं । लॉरेंज वस्तुतः आर्थिक विषमता की माप करता है ।

गिनी गुणांक ( Co - efficient of Ginni ) : आय या सम्पत्ति के वितरण में व्याप्त असमानता की सांख्यिकी माप गिनी गुणांक कहलाता है । गिनी गुणांक का मान जितना अधिक होगा समाज में विषमता भी उतनी अधिक होगी ।

कुजनेट्स वक्र : साइमन कुजनेट के अनुसार , प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि के साथ प्रारंभ में आय की विषमता बढ़ती है तथा बाद में आय की वद्धि के साथ आय - वितरण की विषमता कम होने लगती है । यदि हम इन दोनों के संबंध को वक्र द्वारा प्रदर्शित करें तो वह उल्टे U आकार की प्राप्त होती है । इस वक्र को ही कुजनेटस वक्र कहते हैं ।

फिलिप्स वक्र : किसी भी अर्थव्यवस्था में फिलिप्स वक्र द्वारा बेरोजगारी की दर एवं मुद्रास्फीति के व्युत्क्रम संबंधों को दर्शाया जाता है । यदि किसी भी देश में बेरोजगारी की दर कम है तो मजदूरी दर अधिक होगी एवं यदि बेरोजगारी की दर अधिक है तो मजदूरी कम होगी । अतः फिलिप्स वक्र बेरोजगारी तथा मुद्रा मजदूरी के बीच वस्तु विनिमय को व्यक्त करता है ।

पर्यावरणीय कुजनेट्स वक्र : आर्थिक विकास की दर तथा प्रदूषण के केन्द्रीयकरण के मध्य पाये जाने वाले संबंध को प्रदर्शित करने वाले वक्र को कुजनेट्स पर्यावरणीय वक्र कहते है ।

लाफर वक्र : यदि करारोपण की दरों को कम कर दिया जाये तो सरकार को प्राप्त होने वाले राजस्व में वृद्धि होगी । लेकिन यह वृद्धि एक सीमा से अधिक कमी कर दिये जाने पर करागत राजस्व में कमी आयेगी ।

प्रस्ताव वक्र : सर्वप्रथम मार्शल तथा एजवर्थ ने इसे प्रयोग किया था । लेकिन अब मिल के पारस्परिक मांग सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से लाभ , विनिमय दर सिद्धान्त और प्रशुल्क सिद्धान्त की व्याख्या करने के लिए इसे प्रयोग किया जाता है । किसी देश का प्रस्ताव वक्र उस सापेक्ष वस्तु कीमत को निर्धारित करता है , जिस पर व्यापार होता है । यह उस देश की निर्यात योग्य वस्तु की विविध मात्राओं को प्रदर्शित करता है , जिन्हें वह देश विविध अन्तर्राष्ट्रीय कीमतों पर आयात योग्य वस्तु से विनिमय करने को तैयार है ।

व्यापार उदासीनता वक्र : इसका विकास जेम्स मीड ने किया । व्यापार उदासीनता वक्र घरेलू उत्पादन तथा उपभोग में होनेवाले परिवर्तनों को दर्शाता ही है , साथ ही व्यापार शर्तों और व्यापार के परिमाण में परिवर्तनों से वास्तविक आय में होने वाले परिवर्तन को दिखाता है ।

सिद्धान्त एवं प्रतिपादक

सिद्धान्त प्रतिपादक
विकास का सिद्धान्त दादा भाई नौरोजी
गरीबी का दुश्चक्र दृष्टिकोण , प्रच्छन्न बेरोजगारी सिद्धान्त , संतुलित विकास का सिद्धान्त रेगनर नर्क्स
प्लानिंग एण्ड दी पुअर वी एस . मिन्हास
ऐन इन्क्वेरी इन्टू द पावर्टी ऑफ नेशन्स गुनार मिर्डल
प्रबल धक्का सिद्धान्त रोजस्टीन रोडॉ
असंतुलित विकास सिद्धान्त हर्शमैन
स्टेजेज ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ रोस्टोव
सोशल वेलफेयर एण्ड क्लेक्टिव च्वायस ए . के . सेन
भुगतान सामर्थ्य दृष्टिकोण एडम स्मिथ
इष्टतम करारोपण का सिद्धान्त आर्थर लैफर
व्यय कर केल्डार
टोबिन कर जेम्स टोबिन
मूल्य वर्धित कर ( VAT ) एफ. वान. सीमेन्स ( प्रथम प्रतिपादक )
मूल्य वर्धित कर मारिश फारे और कार्लशूप ( विकसित किया )
न्यूनतम त्याग का सिद्धान्त जे . एस . मिल
जीरो बेस बजटिंग पीटर पायर
अधिकतम सामाजिक कल्याण का सिद्धान्त डाल्टन पीगू
कर देय क्षमता क्लार्क
कार्यात्मक वित्त का सिद्धान्त ए . पी . लर्नर
क्षतिपूरक राजकोषीय सिद्धान्त जॉन मेनार्ड कीन्स

यह भी देखें
LATEST JOB श्रोत- अमर उजाला अखबार
New Vacancy श्रोत- अमर उजाला अखबार ( आज की नौकरी ) CLICK HERE

पुस्तके ( BOOKS )
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