वायुमंडल

नमस्कार दोस्तों Sarkaripen.com में आप लोगो का स्वागत है क्या आप वायुमंडल की जानकारी पाना चाहते है , आज के समय किसी भी नौकरी की प्रतियोगिता की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण विषय है तथा Vayumandal in hindi की जानकारी होना बहुत आवश्यक है , इसलिए आज हम Vayumandal विषय के बारे में बात करेंगे । निचे Atmosphere की जानकारी निम्नवत है ।


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वायुमंडल की संरचना

⦿ पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए वायु के विस्तृत फैलाव को वायुमंडल ( Atmosphere ) कहते हैं । वायुमंडल की ऊपरी परत के अध्ययन को वायुर्विज्ञान ( Aerology ) और निचली परत के अध्ययन को ऋतु विज्ञान ( Meteorology ) कहते हैं । वायु पृथ्वी के द्रव्यमान का अभिन्न भाग है तथा इनके कुल द्रव्यमान का 99% पृथ्वी के सतह से 32 कि.मी. की ऊँचाई तक स्थित है ।

वायुमंडल में पाये जाने वाले कुछ महत्वपूर्ण गैस

1. नाइट्रोजन: इस गैस की प्रतिशत मात्रा सभी गैसों से अधिक है । नाइट्रोजन की उपस्थिति के कारण ही वायुदाब, पवनों की शक्ति तथा प्रकाश के परावर्तन का आभास होता है । इस गैस का कोई रंग, गंध अथवा स्वाद नहीं होता । नाइट्रोजन का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह वस्तुओं को तेजी से जलने से बचाती है। यदि वायुमंडल में नाइट्रोजन न होती तो आग पर नियंत्रण रखना कठिन हो जाता । नाइट्रोजन से पेड़-पौधों में प्रोटीनों का निर्माण होता है, जो भोजन का मुख्य अंग है । यह गैस वायुमंडल में 128 किमी. की ऊँचाई तक फैली हुई है ।

2. ऑक्सीजन: यह अन्य पदार्थों के साथ मिलकर जलने का कार्य करती है । ऑक्सीजन के अभाव में हम ईंधन नहीं जला सकते । अतः यह ऊर्जा का मुख्य स्रोत है । यह गैस वायुमंडल में 64 किलोमीटर की ऊँचाई तक फैली हुई है, परन्तु 16 किलोमीटर से ऊपर जाकर इसकी मात्रा बहुत कम हो जाती है । 120 किमी की ऊँचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा नगण्य हो जाती है ।

3. कार्बन डाइऑक्साइड: यह सबसे भारी गैस है और इस कारण यह सबसे निचली परत में मिलती है । इसका अधिकांश विस्तार 32 किमी की ऊँचाई तक है । वैसे यह 90 किमी की ऊँचाई तक पायी जाती है । यह गैस सूर्य से आने वाली विकिरण के लिए पारगम्य तथा पृथ्वी से परावर्तित होने वाले विकिरण के लिए अपारगम्य है । अतः यह काँच घर या पौधा घर ( Green house ) प्रभाव के लिए उत्तरदायी है और वायुमंडल के निचली परत को गर्म रखती है । दूसरी गैसों का आयतन वायुमंडल में स्थिर है, जबकि पिछले कुछ दशकों में मुख्यतः जीवाश्म ईंधन को जलाये जाने के कारण कार्बन-डाइ-ऑक्साइड के आयतन में लगातार वृद्धि हो रही है ।

नोट: भू-पृष्ठ से परावर्तित अवरक्त विकिरण के अवशोषण द्वारा भू-वायुमंडल के तापमान में वृद्धि की प्रक्रिया को ग्रीन हाउस प्रभाव कहते हैं ।

4. ओजोन : यह गैस ऑक्सीजन का ही एक विशेष रूप है । यह वायुमंडल में अधिक ऊँचाइयों पर ही अति न्यून मात्रा में मिलती है । यह सूर्य से आने वाली तेज पराबैंगनी विकिरण ( Ultraviolet Radiations ) के कुछ अंश को अवशोषित कर लेती है । यह 10 से 50 किमी की ऊँचाई तक केन्द्रित है । वायुमंडल में ओजोन गैस की मात्रा में कमी होने से सूर्य की पराबैंगनी विकिरण अधिक मात्रा में पृथ्वी पर पहुँच कर कैंसर जैसी भयानक बीमारियाँ फैला सकती हैं ।

5. जलवाष्प: वायुमंडल में जलवाष्प सबसे अधिक परिवर्तनशील तथा असमान वितरण वाली गैस है । यह ऊँचाई के साथ घटती जाती है । यह 90 किमी. की ऊँचाई तक ही पाई जाती है । वायुमण्डल के सम्पूर्ण जलवाष्प का 90% भाग 8 किमी. की ऊँचाई तक सीमित है । इसके संघनन होने के कारण बादल, वर्षा, कुहरा, ओस, तुषार, हिम आदि का निर्माण होता है । विभिन्न प्रकार के तूफानों को जलवाष्प से ही ऊर्जा प्राप्त होती है । जलवाष्प सूर्य से आने वाले सूर्यातप के कुछ भाग को अवशोषित कर लेता है तथा पृथ्वी द्वारा विकिरित ऊष्मा को संजोए रखता है । इस प्रकार यह एक कंबल का काम करता है, जिससे पृथ्वी न तो अत्यधिक गर्म और न ही अत्यधिक ठण्डी हो सकती है । जलवाष्प के संघनन से वृष्टि होती है । वायुमंडल की स्थिरता भी जलवाष्प से नियंत्रित होती है ।

⦿ पृथ्वी के ताप को बनाये रखने के लिए उत्तरदायी है- `CO_{2}` एवं जलवाष्प

नोट: जलवाष्प के अलावा सूर्यातप तथा सौर विकिरण का अवशोषण ऑक्सीजन, ओजोन तथा कार्बन डाइऑक्साइड गैसें करती हैं ।

⦿ धूलकण: धूलकण प्रायः वायुमंडल के निचले भाग में मौजूद होते हैं, फिर भी संवहनीय वायु प्रवाह इन्हें काफी ऊँचाई तक ले जा सकता है । धूलकण के स्रोत हैं- समुद्री नमक, महीन मिट्टी, धुँए की कालिमा, राख, पराग, धूल एवं उल्काओं के टूटे हुए कण । धूलकणों का सबसे अधिक जमाव उपोष्ण और शीतोष्ण प्रदेशों में सूखी हवा के कारण होता हैं । धूल और नमक के कण आर्द्रताग्राही केन्द्र की तरह कार्य करते है जिसके चारों ओर जलवाष्प संघनित होकर मेघों का निर्माण करती है ।

⦿ आकाश का रंग नीला धूल-कण के कारण ही दिखाई देता है ।

वायुमंडल में स्थाई गैसें

घटक द्रव्यमान %
नाइट्रोजन (`N_{2}`) 78.8
ऑक्सीजन (`O_{2}`) 20.95
ऑर्गन (Ar) 0.93
कार्बन डाई-ऑक्साइड (`CO_{2}`) 0.036
नियॉन (Ne) 0.002
हिलीयम (He) 0.0005
क्रिप्टॉन (Kr) 0.001
जेनन (Xe) 0.00009
हाइड्रोजन (`H_{2}`) 0.00005

वायुमंडल की संरचना

वायुमंडल को निम्न परतों में बाँटा गया है-

1. क्षोभमंडल ( Troposphere )

⦿ यह वायुमंडल का सबसे नीचे वाली परत है । इसकी ऊँचाई सतह से लगभग 18 किमी. है ।

⦿ इसकी ऊँचाई ध्रुवों पर 8 किमी. तथा विषुवत् रेखा पर लगभग 18 किमी. होती है ।

⦿ क्षोभमंडल में तापमान की गिरावट की दर प्रति 165 मीटर की ऊँचाई पर 1°C अथवा 1 किमी. की ऊँचाई पर 6.4°C होती है ।

⦿ सभी मुख्य वायुमंडलीय घटनाएँ जैसे- बादल, आँधी एवं वर्षा इसी मंडल में होती हैं ।

⦿ इस मंडल को संवहन मंडल कहते हैं, क्योंकि संवहन धाराएँ इसी मंडल की सीमा तक सीमित होती हैं । इस मंडल को अधो मंडल भी कहते हैं ।

⦿ जैविक क्रिया के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण संस्तर है ।

⦿ क्षोभमंडल और समतापमंडल को अलग करने वाले भाग को क्षोभ सीमा कहते है । विषुवत वृत्त के ऊपर क्षोभ सीमा में हवा का तापमान -80°C और ध्रुव के ऊपर -45°C होता है । यहाँ तापमान स्थिर होने के कारण इसे क्षोभसीमा कहा जाता है ।

2. समतापमंडल ( Stratosphere )

⦿ समतापमंडल 50 किमी. की ऊँचाई तक है । समतापमंडल की मोटाई ध्रुवों पर सबसे अधिक होती है, कभी-कभी विषुवत् रेखा पर इसका लोप हो जाता है ।

⦿ इसमें मौसमी घटनाएँ जैसे आँधी, बादलों की गरज, बिजली कड़क, धूल कण एवं जलवाष्प आदि कुछ नहीं होती हैं ।

⦿ इस मंडल में वायुयान उड़ाने की आदर्श दशा पायी जाती है ।

⦿ कभी-कभी इस मंडल में विशेष प्रकार के मेघों का निर्माण होता है, जिन्हें मूलाभ मेघ ( Mother of pearl cloud ) कहते हैं ।

⦿ समताप मंडल की एक महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि इसमें ओजोन गैस की एक परत पायी जाती है, जो सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर लेती है । इसीलिए इसे पृथ्वी का सुरक्षा कवच कहते हैं ।

⦿ ओजोन परत को नष्ट करने वाली गैस CFC ( Chloro-floro-carbon ) है, जो एयर कंडीशनर, रेफ्रीजरेटर आदि से निकलती है । ओजोन परत में क्षरण CFC में उपस्थित सक्रिय क्लोरीन ( CI ) के कारण होती है ।

⦿ ओजोन परत की मोटाई नापने में डाब्सन इकाई का प्रयोग किया जाता है ।

नोट: कुछ विद्वान ओजोन मंडल को एक अलग मंडल मानते है, इसकी ऊँचाई 32 किमी. से 60 किमी. के मध्य मानते है । इस मंडल में ऊँचाई के साथ तापमान बढ़ता जाता है; प्रति एक किमी. की ऊँचाई पर तापमान में 5°C की वृद्धि होती है ।

3. मध्यमंडल ( Mesosphere )

⦿ मध्यमंडल, समताप मंडल के ठीक ऊपर 80 किमी. की ऊँचाई तक फैला है । इस संस्तर में भी ऊँचाई के साथ-साथ तापमान में कमी होने लगती है और 80 कि.मी. की ऊँचाई तक पहुँचकर यह –100°C हो जाता है । मध्य मंडल की ऊपरी परत को मध्य सीमा कहते हैं ।

4. आयनमंडल ( Ionosphere )

⦿ आयन मंडल मध्यमंडल के ऊपर 80 किमी. से 400 किमी. के बीच स्थित है । इसमें विद्युत आवेशित कण पाये जाते हैं, जिन्हें आयन कहते हैं तथा इसीलिए इसे आयन मंडल के नाम से जाना जाता है ।

नोट: यह भाग कम वायुदाब तथा पराबैंगनी किरणों द्वारा आयनीकृत होता रहता है ।

⦿ आयन मंडल में ऊँचाई बढ़ने के साथ तापमान में वृद्धि शुरू हो जाती है ।

⦿ इस मंडल में सबसे नीचे स्थित D-layer से long radiowaves एवं `E_{1},E_{2}` और `F_{1},F_{2}`, परतों से short radio wave परावर्तित होती है जिसके फलस्वरूप पृथ्वी पर रेडियो, टेलीविजन, टेलिफोन एवं रडार आदि की सुविधा प्राप्त होती है । संचार उपग्रह इसी मंडल में अवस्थित होते हैं ।

5. बाह्यमंडल ( Exosphere )

⦿ आयनमंडल से ऊपर के भाग को बाह्यमंडल कहा जाता है ।

⦿ इसकी कोई ऊपरी सीमा निर्धारित नहीं है ।

⦿ इस मंडल में हाइड्रोजन एवं हीलियम गैस की प्रधानता होती है ।

⦿ इस मंडल की महत्वपूर्ण विशेषता इसमें औरोरा आस्ट्रालिस एवं औरोरा बोरियालिस की होने वाली घटनाएँ हैं । औरोरा का शाब्दिक अर्थ होता है प्रातःकाल ( dawn ) जबकि बोरियालिस तथा आस्ट्रालिस का अर्थ क्रमशः ' उत्तरी ' एवं ' दक्षिणी ' होता है । इसी कारण उन्हें उत्तरी ध्रुवीय प्रकाश ( aurora borealis ) एवं दक्षिणी ध्रुवीय प्रकाश ( aurora australis ) कहा जाता है ।

⦿ वास्तव में औरोरा ब्रह्माण्डीय चमकते प्रकाश होते हैं, जिनका निर्माण चुम्बकीय तूफान के कारण सूर्य की सतह से विसर्जित इलेक्ट्रॉन तरंग के कारण होता है ।

⦿ औरोरा ध्रुवीय आकाश में लटके विचित्र बहुरंगी आतिशबाजी की तरह दिखाई पड़ते हैं । ये प्रायः आधी रात के समय दृष्टिगत होते हैं ।

सूर्यातप ( Insolation )

⦿ सूर्य से पृथ्वी तक पहुँचने वाले सौर विकिरण ऊर्जा को सूर्यातप कहते हैं । यह ऊर्जा लघु तरंगों के रूप में सूर्य से पृथ्वी पर पहुँचती है ।

⦿ वायुमंडल की बाहरी सीमा पर सूर्य से प्रति मिनट प्रति वर्ग सेमी. पर 1.94 कैलोरी ऊष्मा प्राप्त होती है । धरातल पर प्राप्त सूर्यातप की मात्रा में उष्ण कटिबंध में 320 वाट प्रति वर्गमीटर से लेकर ध्रुवों पर 70 वाट प्रति वर्गमीटर की भिन्नता पाई जाती है । सबसे अधिक सूर्यातप उपोष्ण कटिबंधीय मरुस्थलों पर प्राप्त होता है. क्योंकि यहाँ मेघाच्छादन बहुत कम पाया जाता है । सामान्यतः एक ही अक्षांश पर स्थित महाद्वीपीय भाग पर अधिक और महासागरीय भाग में अपेक्षतया कम मात्रा में सूर्यातप प्राप्त होता है ।

नोट: पृथ्वी का अक्ष सूर्य के चारों ओर परिक्रमण की समतल कक्षा से 66`\frac{1}{2}`° का कोण बनाता है, जो विभिन्न अक्षांशों पर प्राप्त होने वाले सूर्यातप की मात्रा को बहुत प्रभावित करता है ।

⦿ किसी भी सतह को प्राप्त होनेवाली सूर्यातप की मात्रा एवं उसी सतह से परावर्तित की जाने वाली सूर्यातप की मात्रा के बीच का अनुपात एल्बिडो कहलाता है । सौर विकिरण का यह परावर्तन लघु तरंगों में ही होता है ।

⦿ वायुमंडल की बाह्य सीमा पर प्राप्त होने वाले सौर विकिरण का लगभग 32% भाग बादलों की सतह से परावर्तित तथा धूल-कणों से प्रकीर्णित होकर अन्तरिक्ष में लौट जाता है । सूर्यातप का लगभग 2% भाग धरातल से परावर्तित होकर अन्तरिक्ष में वापस चला जाता है । इस प्रकार सौर विकिरण का 34% भाग धरातल को गर्म करने के काम में नहीं आता ।

⦿ पूर्ण मेघाच्छादन के समय सूर्य के प्रकाश में कमी का मूल कारण परावर्तन होता है, न कि अवशोषण ।

⦿ पृथ्वी सौर्यिक विकिरण द्वारा प्रसारित ऊर्जा का 51% भाग प्राप्त करती है ।

⦿ वायुमंडल सौर्यिक ऊर्जा का केवल 14% ही ग्रहण कर पाता है ।

⦿ वायुमंडल गर्म तथा ठण्डा निम्न विधियों से होता है-

1. चालन ( Conduction ): जब असमान ताप वाली दो वस्तुएँ एक दूसरे के सम्पर्क में आती हैं, तो अधिक तापमान वाली वस्तु से कम तापमान वाली वस्तु की ओर ऊष्मा प्रवाहित होती है । ऊष्मा का यह प्रवाह तब तक चलता रहता है जब तक दोनों वस्तुओं का तापमान एक जैसा न हो जाए । वायु ऊष्मा की कुचालक है, अतः चालन प्रक्रिया वायुमंडल को गर्म करने के लिए सबसे कम महत्वपूर्ण है । वायुमंडल की निचली परतों को गर्म करने में चालन महत्वपूर्ण है ।

2. संवहन ( Convection ): पृथ्वी के संपर्क में आयी वायु गर्म होकर धाराओं के रूप में लंबवत् उठती है और वायुमंडल में ताप का संचरण करती है । वायुमंडल के लंबवत् तापन की यह प्रक्रिया संवहन कहलाती है । जब वायुमंडल की निचली परत भौमिक विकिरण अथवा संचालन से गर्म हो जाती है तो उसकी वायु फैलती है जिससे उसका घनत्व कम हो जाता है । घनत्व कम होने से वह हल्की हो जाती है और ऊपर को उठती है । इस प्रकार वह वायु निचली परतों की ऊष्मा को ऊपर ले जाती है । ऊपर की ठंडी वायु उसका स्थान लेने के लिए नीचे आती है और कुछ देर बाद वह भी गर्म हो जाती है । इस प्रकार संवहन प्रक्रिया द्वारा वायुमंडल क्रमशः नीचे से ऊपर गर्म होता रहता है । वायुमंडल गर्म होने में यह मुख्य भूमिका निभाता है । संवहन द्वारा ऊर्जा का स्थानांतरण केवल क्षोभ मंडल तक सीमित रहता है ।

नोट: संवहन द्वारा उष्मा का संचरण केवल गैसीय एवं तरल पदार्थों में होता है क्योंकि उनके अणुओं के बीच का बंधन कमजोर होता है । यह प्रक्रिया ठोस पदार्थों में नहीं होती है ।

3. विकिरण ( Radiation ): किसी पदार्थ को ऊष्मा तरंगों के संचार द्वारा सीधे गर्म होने को विकिरण कहते हैं । उदाहरणतया, सूर्य से प्राप्त होने वाली किरणों से पृथ्वी तथा उसके वायुमंडल का गर्म होना । पृथ्वी द्वारा प्राप्त प्रवेशी सौर विकिरण, जो लघु तरंगों के रूप में होता है, पृथ्वी की सतह को गर्म करता है । पृथ्वी स्वयं गर्म होने के बाद एक विकिरण पिंड बन जाती है और वायुमंडल में दीर्घ तरंगों के रूप में ऊर्जा का विकिरण करने लगती है । यह ऊर्जा वायुमंडल को नीचे से गर्म करती है । इस प्रक्रिया को पार्थिव विकिरण कहते हैं । दीर्घ तरंगदैर्ध्य विकिरण वायुमंडलीय गैसों मुख्यतः कार्बन डाइऑक्साइड एवं अन्य ग्रीन हाउस गैसों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है । इस प्रकार वायुमंडल पार्थिव विकिरण द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से गर्म होता है न कि सीधे सूर्यातप से ।

4. अभिवहन ( Advection ): वायु के क्षैतिज संचलन से होने वाला ताप का स्थानांतरण अभिवहन कहलाता है । लंबवत् संचलन की अपेक्षा वायु का क्षैतिज संचलन सापेक्षिक रूप से अधिक महत्वपूर्ण होता है । मध्य अक्षांशों में दैनिक मौसम में आने वाली भिन्नताएँ केवल अभिवहन के कारण होती है । गर्म वायु-राशियाँ जब ठंडे इलाकों में जाती हैं, तो उन्हें गर्म कर देती हैं । इससे ऊष्मा का संचार निम्न अक्षांशीय क्षेत्रों से उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों तक भी होता है । वायु द्वारा संचालित समुद्री धाराएँ भी उष्ण कटिबन्धों से ध्रुवीय क्षेत्रों में ऊष्मा का संचार करती हैं ।

नोट: उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में, विशेषतः उत्तरी भाग में गर्मियों में चलने वाली स्थानीय पवन लू अभिवहन का ही परिणाम है ।

पृथ्वी का ऊष्मा बजट

⦿ मान लें वायमंडल की ऊपरी सतह पर प्राप्त सूर्यातप 100 इकाई है । इन 100 इकाई में से 35 इकाइयाँ पृथ्वी के धरातल पर पहुँचने से पहले ही अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाती है । सौर विकिरण की इस परावर्तित मात्रा को पृथ्वी का एल्बिडो कहते हैं । प्रथम 35 इकाइयों को छोड़कर बाकी 65 इकाइयाँ अवशोषित होती है- 14 वायुमंडल में तथा 51 पृथ्वी के धरातल द्वारा । पृथ्वी द्वारा अवशोषित ये 51 इकाइयाँ पुनः पार्थिव विकिरण के रूप में लौटा दी जाती हैं । इनमें से 17 इकाइयाँ तो सीधे अंतरिक्ष में चली जाती हैं और 34 इकाइयाँ वायुमंडल द्वारा अवशोषित होती हैं- 6 इकाइयाँ स्वयं वायुमंडल द्वारा, 9 इकाइयाँ संवहन के जरिए और 19 इकाइयाँ संघनन की गुप्त उष्मा के रूप में । वायुमंडल द्वारा 48 इकाइयों का अवशोषण होता है, इनमें 14 इकाइयाँ सूर्यातप की और 34 इकाइयाँ पार्थिव विकिरण की होती है । वायुमंडल विकिरण द्वारा इनको भी अंतरिक्ष में वापस लौटा देता है, अतः पृथ्वी के धरातल तथा वायुमंडल से अंतरिक्ष में वापस लौटाने वाली विकिरण की इकाईयाँ क्रमशः 17 और 48 हैं, जिनका योग 65 होता है । वापस लौटाने वाली ये इकाइयाँ उन 65 इकाइयों का संतुलन कर देती है जो सूर्य से प्राप्त होती है । यही पृथ्वी का उष्मा बजट अथवा उष्मा संतुलन है ।

तापमान ( Temperature )

⦿ वायुमंडल एवं भू-पृष्ठ के साथ सूर्यातप की अन्योन्य क्रिया द्वारा जनित ऊष्मा तापमान के रूप में मापा जाता है । जहाँ ऊष्मा किसी पदार्थ कणों के अणुओं की गति को दर्शाती है, वहीं तापमान किसी पदार्थ या स्थान के गर्म या ठंडा होने का डिग्री में माप है । किसी भी स्थान पर वायु का तापमान निम्नलिखित कारकों द्वारा प्रभावित होता है-
1. उस स्थान का अक्षांश रेखा
2. समुद्र तल से उस स्थान की उतुंगता
3. समुद्र से उसकी दूरी
4. वायु संहति का परिसंचरण
5. कोषण तथा ठंढी महासागरीय धाराओं की उपस्थिति
6. स्थानीय कारक

तापमान का वितरण

⦿ जनवरी और जुलाई के तापमान के वितरण का अध्ययन करके हम पूरे विश्व के तापमान वितरण के बारे में जान सकते हैं । मानचित्रों पर तापमान वितरण सामान्यतः समताप रेखाओं की मदद से दर्शाया जाता है । यह वह रेखा है, जो समान तापमान वाले स्थानों को जोड़ती है ।

⦿ विषुवत रेखीय महासागरों पर तापमान 27°C से अधिक होता है ।

⦿ सर्वाधिक तापांतर यूरेशिया महाद्वीप के उत्तरी पूर्वी क्षेत्र में पाया जाता है, जो लगभग 60°C है । इसका मुख्य कारण महाद्वीपीयता ( continentality ) है । सबसे कम 3°C का तापांतर 20° दक्षिणी एवं 15° उत्तरी अक्षांशों के बीच पाया जाता है ।

⦿ समताप रेखा : वह कल्पित रेखा है, जो समान तापमान वाले स्थानों को मिलाती है । समताप रेखाओं तथा तापमान के वितरण के निम्न लक्षण हैं-

1. समताप रेखाएँ पूर्व-पश्चिम दिशा में अक्षांशों के लगभग समानान्तर खींची जाती हैं । इसका कारण यह है कि एक ही अक्षांश पर स्थित सभी स्थानों पर एक ही मात्रा में सूर्यातप प्राप्त होता है और तापमान भी लगभग एक जैसा ही होता है ।

2. जल और स्थान पर तापमान भिन्न होते हैं अतः तटों पर समताप रेखाएँ अकस्मात् मुड़ जाती हैं ।

3. दक्षिणी गोलार्द्ध में जल भाग अधिक है और वहाँ पर तापमान संबंधी विषमताएँ कम पायी जाती हैं । इसके विपरीत उत्तरी गोलार्द्ध में जल भाग कम है और वहाँ पर तापमान सम्बन्धी विषमताएँ अधिक पायी जाती हैं । इस कारण दक्षिणी गोलार्द्ध में समताप रेखाओं में मोड़ कम आते हैं और उनकी पूर्व-पश्चिम दिशा अधिक स्पष्ट है ।

4. समताप रेखाओं के बीच की दूरी से ताप-प्रवणता ( तापमान के बदलने की दर ) का अनुमान लगाया जा सकता है । यदि समताप रेखाएँ एक-दूसरे के निकट होती हैं, तो ताप-प्रवणता अधिक होती है । इसके विपरीत, यदि समताप रेखाएँ एक-दूसरे से दूर होती हैं तो ताप-प्रवणता कम होती हैं ।

5. उष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में तापमान अधिक होता है अतः अधिक मूल्य वाली समताप रेखाएँ उष्ण कटिबन्ध में होती हैं । ध्रुवीय प्रदेशों में तापमान बहुत ही कम होता है अतः वहाँ पर कम मूल्य समताप रेखाएँ होती हैं ।

⦿ संसार के अधिकांश क्षेत्रों के लिए जनवरी एवं जुलाई के महीनों में न्यूनतम अथवा अधिकतम तापमान पाया जाता है । यही कारण है कि तापमान विश्लेषण के लिए बहुधा इन्हीं दो महीनों को चुना जाता है ।

⦿ तापान्तर ( Range of Temperature ): अधिकतम तथा न्यूनतम तापमान के अंतर को तापान्तर कहते हैं । यह दो प्रकार का होता है-

1. दैनिक तापान्तर: किसी स्थान पर किसी एक दिन के अधिकतम तथा न्यूनतम तापमान के अन्तर को वहाँ का दैनिक तापान्तर कहते हैं । ताप में आये इस अंतर को ताप परिसर कहते हैं ।

2. वार्षिक तापान्तर: जिस प्रकार दिन तथा रात के तापमान में अन्तर होता है, उसी प्रकार ग्रीष्म तथा शीत ऋतु के तापमान में भी अन्तर होता है । अतः किसी स्थान के सबसे गर्म तथा सबसे ठंडे महीने के मध्यमान तापमान के अन्तर को वार्षिक तापान्तर कहते हैं । विश्व में सबसे अधिक वार्षिक तापान्तर 65.5°C साइबेरिया में स्थित बर्खोयांस्क नामक स्थान का है ।

⦿ किसी भी स्थान विशेष के औसत तापक्रम तथा उसके अक्षांश के औसत तापक्रम के अन्तर को तापीय विसंगति कहते हैं ।

वायुदाब

⦿ माध्य समुद्रतल से वायुमंडल की अंतिम सीमा तक एक इकाई क्षेत्रफल के वायु स्तंभ के भार को वायुमंडलीय दाब कहते हैं । सामान्य दशाओं में समुद्रतल पर वायुदाब पारे के 76 सेमी. या 760 मिमी. ऊँचे स्तम्भ द्वारा पड़ने वाला दाब होता है । वायुदाब बैरोमीटर से मापा जाता है । वायुमंडलीय दाब को मौसम के पूर्वानुमान के लिए एक महत्वपूर्ण सूचक माना जाता है ।

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Vayudab

यन्त्र अविष्कारक
पारद वायु-दाब ई. टॉरीसेली
निद्रव-वायु दाबमापी लूसियस विडाई
सेल्सियस थर्मामीटर ऐन्डर्स सेल्सियस
केश आद्रतामाप डी. सौस्सर

⦿ वायुमंडलीय दाब की इकाई बार ( bar ) है ( 1 bar = `10^{5}`N/`m^{2}` ) वायुदाब को मिली बार तथा पास्कल में भी मापते हैं । व्यापक रूप से प्रयोग की जाने वाली दाब की इकाई को किलो पास्कल ( KPa ) कहते हैं । समुद्रतल पर औसत वायुमंडलीय दाब 1,013.2 मिलीबार या 1013.2 किलो पास्कल होता है ।

⦿ वायुमंडल के निचले भाग में वायुदाब ऊँचाई के साथ तीव्रता से घटता है । यह ह्रास दर प्रत्येक 10 मी. की ऊँचाई पर 1 मिलीबार होता है । 10 किमी. की ऊँचाई पर 265 मिलीबार वायु दाब एवं -49.7°C मानक तापमान होता है ।

⦿ समदाब रेखा: वह कल्पित रेखा जो समुद्रतल के बराबर घटाये हुये समान वायुदाब वाले स्थानों को मिलाती है, समदाब रेखा ( Isobar ) कहते हैं । वायुदाब को मानचित्र पर समदाब रेखा द्वारा दर्शाया जाता है । दूरी की प्रति इकाई पर दाब के घटने को दाब प्रवणता ( Pressure Gradient ) कहते हैं । जब समदाब रेखा एक-दूसरे के पास होती है तो दाब प्रवणता अधिक होती है । परन्तु जब समदाब रेखाएँ एक-दूसरे से दूर होती हैं तो दाब प्रवणता कम होती है ।

नोट: दूरी के संदर्भ में दाब परिवर्तन की दर दाब प्रवणता है ।

⦿ पृथ्वी के धरातल पर चार वायुदाब कटिबंध हैं-

1. विषुवत् रेखीय निम्न वायुदाब: यह पेटी भूमध्य रेखा से 10° उत्तरी तथा 10° दक्षिणी अक्षांशों के बीच स्थित है । यहाँ सालों भर सूर्य की किरणें लम्बवत् पड़ती हैं, जिसके कारण तापमान हमेशा ऊँचा रहता है । इस कटिबंध में धरातलीय क्षैतिज पवनें नहीं चलतीं बल्कि अधिक तापमान के कारण वायु हल्की होकर ऊपर को उठती है और संवहनीय धाराओं का जन्म होता है । इसलिए इस कटिबन्ध को शान्त कटिबन्ध या डोलड्रम कहते हैं ।

नोट: विषुवत रेखा पर पृथ्वी के घूर्णन का वेग सबसे अधिक होता है, जिससे यहाँ पर अपकेन्द्रीय बल सर्वाधिक होती है, जो वायु को पृथ्वी के पृष्ठ से परे धकेलती है । इसके कारण भी यहाँ पर वायुदाब कम होता है ।

2. उपोष्ण उच्च वायुदाब: उत्तरी तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में क्रमशः कर्क और मकर रेखाओं से 35° अक्षांशों तक उच्च दाब-पेटियाँ पायी जाती हैं । यहाँ उच्च दाब होने के दो कारण हैं-

( a ) विषुवत रेखीय कटिबन्ध से गर्म होकर उठने वाली वायु ठण्डी और भारी होकर कर्क तथा मकर रेखाओं से 35° अक्षांशों के बीच नीचे उतरती है और उच्च वायुदाब उत्पन्न करती है ।

( b ) पृथ्वी के दैनिक गति के कारण उपध्रुवीय क्षेत्रों से वायु विशाल राशियाँ कर्क तथा मकर रेखाओं से 35° अक्षांशों के बीच एकत्रित हो जाती हैं, जिससे वहाँ पर उच्च वायुदाब उत्पन्न हो जाती है ।

नोट: विषुवत रेखा से 30°-35° अक्षांशों के मध्य दोनों गोलाद्ध में उच्च वायुदाब की पेटियाँ उपस्थित होती हैं । इस उच्च वायुदाब वाली पेटी को अश्व अक्षांश कहते हैं । इसका कारण यह है कि मध्य युग में यूरोप में खेती के लिए पश्चिमी द्वीप समूह में पालदार जलयानों में लादकर घोड़े भेजे जाते थे । प्रायः इन जलयानों को इन अक्षांशों के बीच वायु शान्त रहने के कारण आगे बढ़ने में कठिनाई होती थी । अतः जलयानों का भार कम करने के लिए कुछ घोड़े समुद्र में फेंक दिये जाते थे ।

3. उपध्रुवीय निम्न वायुदाब: 45° उत्तरी तथा दक्षिणी अक्षांशों से क्रमशः आर्कटिक तथा अंटार्कटिक वृत्तों के बीच निम्न वायु-भार की पेटियाँ पायी जाती हैं , जिसे उपध्रुवीय निम्न दाब पेटियाँ कहते हैं ।

4. ध्रुवीय उच्च वायुदाब: 80° उत्तरी तथा दक्षिणी अक्षांश से उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुव तक उच्च दाब पेटियाँ पायी जाती हैं ।

पवन ( Wind )

⦿ पृथ्वी के धरातल पर वायुदाब में क्षैतिज विषमताओं के कारण हवा उच्च वायुदाब क्षेत्र से निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर बहती है । क्षैतिज रूप से इस गतिशील हवा को पवन कहते हैं । ऊर्ध्वाधर दिशा में गतिशील हवा को वायुधारा ( Air current ) कहते हैं । यदि पृथ्वी स्थिर होती और उसका धरातल समतल होता तो पवन उच्च वायुदाब वाले क्षेत्र से सीधे निम्न वायुदाब वाले क्षेत्र की ओर समदाब रेखाओं पर समकोण बनाती हुई चलती परन्तु वास्तविक स्थिति यह है कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूर्णन कर रही है और उसका धरातल समतल नहीं है । अतः पवन कई कारणों के प्रभावाधीन अपनी दिशा में परिवर्तन करती हुई चलती है । ये कारण हैं- दाब प्रवणता बल, कोरिऑलिस प्रभाव, अभिकेन्द्रीय त्वरण एवं भू- घर्षण

कोरिऑलिस प्रभाव ( Coriolis Effect )
पृथ्वी के घूर्णन के कारण पवनें अपनी मूल दिशा में विक्षेपित हो जाती हैं । इसे कोरिऑलिस बल कहते हैं । इसका नाम फ्रांसीसी वैज्ञानिक के नाम पर पड़ा है जिसने सबसे पहले इस बल के प्रभाव का वर्णन 1844 ई. में किया । इस बल के प्रभावाधीन उत्तरी गोलार्द्ध में पवनें दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं । इस विक्षेप को फेरेल नामक वैज्ञानिक ने सिद्ध किया था, अतः इसे फेरेल का नियम ( Farrel's Law ) कहते हैं । इसे बाइज-बैलेट नियम द्वारा भी समझा जा सकता है । इस नियम के अनुसार, " यदि कोई व्यक्ति उत्तरी गोलार्द्ध में पवन की ओर पीठ करके खड़ा हो, तो उच्च दाब उसके दायीं ओर तथा निम्न दाब उसके बायीं ओर होगा । " दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थिति इसके ठीक विपरीत होगी । कोरिऑलिस बल अक्षांशों के कोण के सीधा समानुपात में बढ़ता है । यह ध्रुवों पर सर्वाधिक एवं विषुवत वृत्त पर अनुपस्थित होता है । यानी ध्रुवों पर पवनों की दिशा में अधिकतम विक्षेप और विषुवत रेखा पर पवनों की दिशा में कोई विक्षेप नहीं होता है । कोरिऑलिस बल दाब प्रवणता के समकोण पर कार्य करता है । दाब प्रवणता बल समदाब रेखाओं के समकोण पर होता है । जितनी दाब प्रवणता अधिक होगी पवनों का वेग उतना ही अधिक होगा और पवनों की दिशा उतनी ही अधिक विक्षेपित होगी । इन दो बलों के एक-दूसरे से समकोण पर होने के कारण निम्न दाब क्षेत्रों में पवनें इसी के इर्द-गिर्द बहती हैं । विषुवत वृत्त पर कोरिऑलिस बल शून्य होता है और पवनें समदाब रेखाओं के समकोण पर बहती है । अतः निम्न दाब क्षेत्र और अधिक गहन होने के बजाए पूरित हो जाता है । यही कारण है कि विषुवत् वृत्त के निकट उष्णकटिबंधीय चक्रवात नहीं बनते ।

⦿ पवन निम्न प्रकार के होते हैं- 1. प्रचलित पवन 2. मौसमी पवन 3. स्थानीय पवन

1. प्रचलित पवन

पृथ्वी के विस्तृत क्षेत्र पर एक ही दिशा में वर्ष भर चलने वाली पवन को प्रचलित पवन या स्थायी पवन कहते हैं । स्थायी पवनें एक वायु-भार कटिबन्ध से दूसरे वायु-भार कटिबन्ध की ओर नियमित रूप से चला करती है । इसके उदाहरण हैं- पछुआ पवन, व्यापारिक पवन और ध्रुवीय पवन ।

⦿ पछुआ पवन: दोनों गोलार्द्ध में उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबंधों से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब कटिबंधों की ओर चलने वाली स्थायी हवा को, इनकी पश्चिम दिशा के कारण, पछुआ पवन कहा जाता है । पछुआ पवन का सर्वश्रेष्ठ विकास 40° से 65° द. अक्षांशों के मध्य पाया जाता है । यहाँ के इन अक्षांशों को गरजता चालीसा, प्रचण्ड पचासा तथा चीखता साठा कहा जाता है । ये सभी नाम नाविकों के दिये हुए हैं ।

⦿ व्यापारिक पवन: लगभग 30° उत्तरी और दक्षिणी अक्षांशों के क्षेत्रों या उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबंधों से भूमध्य रेखीय निम्न वायुदाब कटिबंधों की ओर दोनों गोलाद्धों में वर्ष भर निरन्तर प्रवाहित होने वाले पवन को व्यापारिक पवन कहा जाता है । कोरिऑलिस बल और फेरल के नियम के कारण उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर विक्षेपित हो जाता है ।

⦿ ध्रुवीय पवनः ध्रुवीय उच्च वायुदाब की पेटियों से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब की पेटियों की ओर प्रवाहित पवन को ध्रुवीय पवन के नाम से जाना जाता है । उत्तरी गोलार्द्ध में इसकी दिशा उत्तरर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर है ।

2. मौसमी पवन

⦿ मौसम या समय के परिवर्तन के साथ जिन पवनों की दिशा बदल जाती है उन्हें मौसमी पवन कहा जाता है । जैसे- मॉनसूनी पवन, स्थल समीर तथा समुद्री समीर ( पवन ) ।

स्थल व समुद्र समीर
ऊष्मा के अवशोषण तथा स्थानान्तरण में स्थल व समुद्र में भिन्नता पायी जाती है । दिन के दौरान स्थल भाग समुद्र की अपेक्षा अधिक गर्म हो जाते हैं । अतः स्थल पर हवाएँ ऊपर उठती हैं और निम्न दाब क्षेत्र बनता है, जबकि समुद्र अपेक्षाकृत ठंडे रहते हैं और उन पर उच्च वायुदाब बना रहता है । इससे समद्र से स्थल की ओर दाब प्रवणता उत्पन्न होती है और पवनें समुद्र से स्थल की तरफ समुद्र समीर के रूप में प्रवाहित होती हैं । रात्रि में इसके एकदम विपरीत प्रक्रिया होती है । स्थल समुद्र की अपेक्षा जल्दी ठंडा होता है । दाब प्रवणता स्थल से समुद्र की तरफ होने पर स्थल समीर प्रवाहित होती है ।

3. स्थानीय पवन

प्रमुख गर्म स्थानीय पवन-

⦿ चिनुक: यह संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में रॉकी पर्वतश्रेणी के पूर्वी ढाल के साथ चलने वाला गर्म या शुष्क पवन है । यह पवन रॉकी पर्वत के पूर्व के पशुपालकों के लिए बड़ा ही लाभदायक है, क्योंकि शीतकाल की अधिकांश अवधि में यह बर्फ को पिघलाकर चारागाहों को बर्फ से मुक्त रखता है ।

⦿ फॉन : यह आल्प्स पर्वत के उत्तरी ढाल से नीचे उतरने वाली गर्म एवं शुष्क हवा है । इसका सर्वाधिक प्रभाव स्विट्जरलैंड में होता है । इसके प्रभाव से बर्फ पिघल जाती है और पशुचारकों के लिए चारागाह मिल जाता है । इसके प्रभाव से अंगूर जल्दी पक जाते हैं ।

⦿ हरमट्टन : यह सहारा रेगिस्तान से उत्तर-पूरब दिशा में चलने वाली गर्म एवं शुष्क हवा है । यह पवन सहारा से गिनी तट की ओर बहती है । गिनी तट पर इसे डॉक्टर हवा कहा जाता है ।

⦿ सिरॉको : यह सहारा मरुस्थल से भूमध्य सागर की ओर बहने धूल से लदी गर्म हवा है । जब यह भूमध्य सागर पार करती हैं तो आर्द्र हो जाती है और इटली पहुँच जाती है । इसके अन्य स्थानीय नाम भी हैं, जैसे- 1. खमसिन ( मिस्र में ) 2. गिबिली ( लीबिया में ) 3. चिली ( ट्यूनीशिया में ) 4. लेस्ट ( मैड्रिया में ) 5. सिरॉको ( इटली में ) 6. लेबेक ( स्पेन में ) ।

⦿ सिमूम: यह अरब रेगिस्तान में बहने वाली गर्म एवं शुष्क हवा है ।

⦿ ब्लैक रोलर: यह उत्तरी अमेरिका के विशाल मैदान में दक्षिणी-पश्चिमी या उत्तरी-पश्चिमी तेज धूल भरी चलने वाली आँधी है ।

⦿ ब्रिक फील्डर: यह आस्ट्रेलिया के विक्टोरिया प्रांत में चलने वाली गर्म एवं शुष्क हवा है ।

⦿ नारवेस्टर: यह न्यूजीलैंड में उच्च पर्वतों से उतरने वाली गर्म एवं शुष्क हवा है ।

⦿ शामल : यह इराक तथा फारस की खाड़ी में चलने वाली गर्म एवं शुष्क हवा है ।

⦿ साण्टा आना : यह दक्षिणी कैलीफोर्निया में साण्टा आना घाटी से चलने वाली गर्म एवं शुष्क धूल भरी आँधी है ।

⦿ कोयमबैंग : यह जावा इण्डोनेशिया में बहने वाली गर्म हवा है । यह तम्बाकू की खेती को काफी नुकसान पहुँचाती है ।

⦿ जेट-प्रवाह ( Jet Streams ): क्षोभमंडल की ऊपरी परत में बहुत तीव्र गति से चलने वाले सँकरे, नलिकाकार व विसर्पी पवन प्रवाह को जेट प्रवाह कहते हैं । यह 6 से 12 किमी. की ऊँचाई पर पश्चिम से पूर्व की ओर प्रवाहित होता है । यह दोनों गोलार्द्ध में पाया जाता है, परंतु उत्तरी गोलार्द्ध में यह अधिक शक्तिशाली होता है । इसमें वायु 120 किमी / घंटा से चलती है । जेट-प्रवाह वायुमंडलीय विक्षोभों, चक्रवातों, प्रतिचक्रवातों, तूफानों और वर्षा को उत्पन्न करने में सहायक होते हैं । आधुनिक खोजों के अनुसार एशिया में मानसून पवनों के कारण जेट-प्रवाह माना जाता है । यह पृथ्वी पर तापमान के वितरण का संतुलन बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।

स्थानीय शीतल हवाएं
नाम स्थान
विलिवाव अलास्का
बोरा एड्रियाटिक तट
मिस्ट्रल स्पेन एवं फ़्रांस
बुरान रूस
बाइज दक्षिणी फ़्रांस
पैम्पीरो अर्जेंटीना 
फ्रियाजेम ब्राजील
नार्दर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका
नॉर्टी  संयुक्त राष्ट्र अमेरिका
पोनेंटी दक्षिणी अफ्रीका
पैपागायो मैक्सिको 
मैस्ट्रेल उत्तरी इटली
नेवाडॉस इक्वाडोर
विली-विली ऑस्ट्रेलिया
सिस्टान पूर्वी ईरान
हबूब सूडान
पुर्गा टुण्ड्रा प्रदेश
केप डॉक्टर या टेबुल ब्लॉक दक्षिणी अफ़्रीकी गणतंत्र

कुछ अन्य गरम हवाएं एवं स्थान
नाम स्थान
ट्रैमोन्टेन मध्य यूरोप
अयाला फ्रांस
वर्गस दक्षिण अफ्रीका
सुखोवे रूस एवं कजाखस्तान
बाग्यो फिलीपींस द्वीप समूह
गारिच दक्षिण-पूर्वी ईरान
लू उत्तरी भारत
सोलैनो दक्षिण-पूर्वी स्पेन
सामून ईरान

वायु राशियाँ ( Air Masses )
वायुमंडल का वह विशाल एवं विस्तृत भाग जिसमें तापमान तथा आर्द्रता के भौतिक लक्षण क्षैतिज दिशा में समरूप हों, वायु राशि कहलाता है । सामान्यतः वायु-राशियाँ सैकड़ों किलोमीटर तक विस्तृत होती हैं । एक वायुराशि में कई परतें होती हैं, जो एक-दूसरे के ऊपर क्षैतिज दिशा में फैली होती हैं । प्रत्येक परत में वायु के तापमान तथा आर्द्रता की स्थिति लगभग समान होती है । यह जलवायु तथा मौसम के अध्ययन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।

वाताग्र ( Fronts )

जब दो भिन्न प्रकार की वायु राशियाँ मिलती हैं तो उनके मध्य सीमा क्षेत्र को वाताग्र कहते हैं । वाताग्र चार प्रकार के होते हैं - 1. शीत वाताग्र 2. उष्ण वाताग्र 3. अचर वाताग्र 4. अधिविष्ट वाताग्र ।

1. शीत वाताग्र : जब शीतल व भारी वायु अक्रामक रूप में उष्ण वायुराशियों को ऊपर धकेलती है, इस संपर्क क्षेत्र को शीत वाताग्र कहते हैं ।

2. उष्ण वाताग्र : यदि गर्म वायुराशियाँ अक्रामक रूप में ठंढी वायुराशियों के ऊपर चढ़ती है तो इस संपर्क क्षेत्र को उष्ण वाताग्र कहते हैं ।

3. अचर वाताग्र : जब वाताग्र स्थिर हो जाए तो इन्हें अचर वाताग्र कहा जाता है अर्थात् ऐसे वाताग्र जब कोई भी वायु ऊपर नहीं उठती ।

4. अधिविष्ट वाताग्र : यदि एक वायु राशि पूर्णतः धरातल के ऊपर उठ जाए तो ऐसे वाताग्र को अधिविष्ट वाताग्र कहते हैं ।

नोट: वाताग्र मध्य अक्षांशो में ही निर्मित होते हैं और तीव्र वायुदाब व तापमान प्रवणता इनकी विशेषता है । ये तापमान में अचानक बदलाव लाते हैं तथा इसी कारण वायु ऊपर उठती है, बादल बनते हैं तथा वर्षा होती है ।

आर्द्रता ( Humidity )

⦿ वायुमंडल में उपस्थित जलवाष्प को वायुमंडल की आर्द्रता कहते हैं । यह तीन प्रकार की होती है-

1. निरपेक्ष आर्द्रता ( Absolute Humidity ): वायु की प्रति इकाई आयतन में विद्यमान जलवाष्प की मात्रा को निरपेक्ष आर्द्रता कहते हैं । इसे ग्राम प्रति घन मीटर में व्यक्त किया जाता है ।

2. विशिष्ट आर्द्रता ( Specific Humidity ): वायु के प्रति इकाई भार में जलवाष्प के भार को विशिष्ट आर्द्रता कहते हैं । इसे ग्राम प्रति किग्रा. की इकाई में मापा जाता है ।

3. सापेक्ष आर्द्रता ( Relative Humidity ): किसी भी तापमान पर वायु में उपस्थित जलवाष्प तथा उसी तापमान पर उसी वायु की जलवाष्प धारण करने की क्षमता के अनुपात को सापेक्ष आर्द्रता कहते हैं । इसे निम्न सूत्र द्वारा भी व्यक्त कर सकते हैं-
⦿ सापेक्ष आर्द्रता जलवाष्प की मात्रा एवं वायु के तापमान पर निर्भर करता है । इसे प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है । वायु में जलवाष्प की मात्रा अधिक होने पर सापेक्ष आर्द्रता अधिक होती है । वायु का तापमान कम होने पर सापेक्ष आर्द्रता बढ़ जाती है एवं तापमान बढ़ जाने पर सापेक्ष आर्द्रता कम हो जाती है ।

⦿ संतृप्त वायु की सापेक्ष आर्द्रता 100% होती है । 45% सापेक्ष आर्द्रता मनुष्य के लिए सबसे अधिक आरामदायक होता है ।

संघनन ( Condensation ) : जल की गैसीय अवस्था के तरल या ठोस अवस्था में परिवर्तित होने की क्रिया को संघनन कहते हैं । यह दो कारकों पर निर्भर करता है- 1. तापमान में कमी पर 2. वायु की सापेक्ष आर्द्रता पर ।

ओसांक ( Dew point ) : वायु के जिस तापमान पर जल अपनी गैसीय अवस्था से तरल या ठोस अवस्था में परिवर्तित होता है, उसे ओसांक कहते हैं । ओसांक पर वायु संतृप्त हो जाती है और उसकी सापेक्ष आर्द्रता 100% होती है । ओस पड़ने के लिए ओसांक का हिमांक ( 0°C ) से ऊपर होना चाहिए ।

पाला या तुषार ( Frost ) : जब ओसांक, हिमांक से नीचे होता है तब ओस के स्थान पर पाला पड़ता है ।

कोहरा ( Fog ) : वायुमंडल की निचली परतों में एकत्रित धूल-कण, धुएँ के रज एवं संघनित जल-पिण्डों को कोहरा कहते हैं । ओसांक से नीचे वायु का तापमान कम होने पर कोहरे का निर्माण होता है । इसमें दृश्यता एक किमी. से कम होती है ।

धुन्ध ( Mist ) : हल्के-फुल्के कोहरे को कुहासा या धुन्ध कहते हैं । इसमें दृश्यता एक किमी. से अधिक किन्तु दो किमी. से कम होती है ।

बादल ( Clouds )

बादल मुख्यतः हवा के रुद्घोष्म ( Adiabatic ) प्रक्रिया द्वारा ठंडे होने पर उसके तापमान के ओसांक से नीचे गिरने से बनते हैं । यह अल्प घनत्व के कारण वायुमंडल में तैरते हैं । रूप के आधार पर बादल निम्न प्रकार के होते हैं-

1. पक्षाभ बादल : इसका निर्माण 8000-12000 मी. की ऊँचाई पर होता है । ये पतले तथा बिखरे हुए बादल होते हैं जो पंख के समान प्रतीत होते हैं । ये हमेशा सफेद रंग के होते हैं ।

2. कपासी बादल : यह रूई के समान दिखते हैं । यह प्रायः 4000 से 7000 मी. की ऊँचाई पर बनते हैं । ये छितरे तथा इधर-उधर बिखरे देखे जा सकते हैं । ये चपटे आधार वाले होते है व शीर्ष गुम्बदनुमा होता है ।

3.स्तरी बादल : ये परतदार चादर जैसे लगते हैं । ये अधिकांश या पूर्ण आकाश को ढँके रहते हैं । ये दो या तीन किमी की ऊँचाई पर पाये जाते हैं । इसमें सतत वर्षण के गुण होते हैं । ये बादल सामान्यतः या तो ऊष्मा के ह्रास या अलग-अलग तापमानों पर हवा के आपस में मिश्रित होने से बनते हैं ।

4. वर्षा बादल : वर्षा बादल काले या गहरे स्लेटी रंग के होते हैं । यह मध्य स्तरों या पृथ्वी के सतह के काफी नजदीक बनते हैं । ये सूर्य की किरणों के लिए बहुत ही आपारदर्शी होते हैं । कभी-कभी बादल इतनी कम ऊँचाई पर होते हैं कि ये सतह को छूते हुए प्रतीत होते हैं ।

⦿ ये चार मूल रूपों के बादल मिलकर निम्नलिखित रूपों के बादल का निर्माण करते हैं-

ऊँचे बदल- पक्षाभ, पक्षाभ स्तरी, पक्षाभ कपासी
मध्य ऊंचाई के बादल- स्तरी मध्य तथा कपासी मध्य
कम  ऊंचाई के बादल- स्तरी कपासी, स्तरी वर्षा बादल एवं कपासी वर्षा बदल

नोट : नेफोस्कोप बादलों की दिशा एवं गति को मापने वाला यंत्र है ।

वर्षा ( Rainfall )

⦿ जब जलवाष्प की बूँदें जल के रूप में पृथ्वी पर गिरती हैं, तो उसे वर्षा कहते हैं । वायु के ठण्डा होने की विधियों के अनुसार वर्षा तीन प्रकार की होती हैं-

1. संवहनीय वर्षा ( Convectional Rainfall ): जब भूतल बहुत गर्म हो जाता है, तो उसके साथ लगने वाली वायु भी गर्म हो जाती है । वायु गर्म होकर फैलती है और हल्की हो जाती है । यह हल्की वायु ऊपर को उठने लगती है और संवहनीय धाराओं का निर्माण होता है । ऊपर जाकर यह वायु ठण्डी हो जाती है और इसमें उपस्थित जलवाष्प का संघनन होने लगता है । संघनन से कपासी मेघ बनते हैं, जिससे घनघोर वर्षा होती है। इसे संवहनीय वर्षा कहते हैं ।

2. पर्वतकृत वर्षा ( Orographic Rainfall ): जब जलवाष्प से लदी हुई गर्म वायु को किसी पर्वत या पठार की ढलान के साथ ऊपर चढ़ना पड़ता है, तो यह वायु ठण्डी हो जाती है । ठण्डी होने से यह संतृप्त हो जाती है और ऊपर चढ़ने से जलवाष्प का संघनन होने लगता है । इससे वर्षा होती है । इसे पर्वतकृत वर्षा कहते हैं ।

3. चक्रवाती वर्षा ( Cyclonic or Frontal Rainfall ): चक्रवातों द्वारा होने वाली वर्षा को चक्रवाती अथवा वाताग्री वर्षा कहते हैं ।

वर्षण
जलवाष्प के संघनन के बाद नमी के मुक्त होने की अवस्था को वर्षण कहते हैं । यह द्रव या ठोस अवस्था में हो सकता है । वर्षण जब पानी के रूप में होता है तो उसे वर्षा कहते हैं । जब तापमान 0°C से कम होता है तब वर्षण हिमतुलों के रूप में होता है जिसे हिमपात कहते हैं । नमी षट्कोणीय रवों के रूप में निर्मुक्त होती है । वर्षा एवं हिमपात के अतिरिक्त वर्षण के दूसरे प्रकार सहिम वृष्टि तथा करकापात हैं । कभी-कभी वर्षा की बूँदे बादल से मुक्त होने के बाद बर्फ के छोटे गोलाकार ठोस टुकड़ों में परिवर्तित हो जाती हैं तथा पृथ्वी की सतह पर पहुँचती हैं, जिसे ओला पत्थर कहा जाता है । ये वर्षा की जल से बनती है जो कि ठंडी परतों से होकर गुजरती है ।

⦿ बादल फटना ( cloud brust ) का अर्थ है- भारी तूफान के साथ आसाधारण रूप से भारी बरसात ।

चक्रवात, प्रतिचक्रवात ( Cyclones, Anticyclone )

⦿ चक्रवात, प्रतिचक्रवात इसकी उत्पत्ति विभिन्न प्रकार की वायुराशियों के मिश्रण के फलस्वरूप वायु की तीव्र गति से ऊपर उठकर बवंडर का रूप ग्रहण करने से होती है ।

⦿ चक्रवात : केन्द्र में कम दाब की स्थापना होने पर बाहर की ओर दाब बढ़ता जाता है । इस अवस्था में हवाएँ बाहर से भीतर की ओर चलती हैं, इसे ही ' चक्रवात ' कहा जाता है निम्न दाब के चारों तरफ पवनों का परिक्रमण चक्रवाती परिसंचरण कहलाता है । प्रायः निम्न दाब क्षेत्रों पर वायु अभिसरित होगी और ऊपर उठेंगी ।

⦿ चक्रवात में वायु चलने की दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सूइयों के विपरीत ( Anticlockwise ) एवं दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सूई की दिशा ( Clockwise ) में होती है । टॉरनेडो, हरिकेनटाइफून चक्रवात के उदाहरण हैं ।

⦿ प्रतिचक्रवात : जब केन्द्र में दाब अधिक होता है तो केन्द्र से हवाएँ बाहर की ओर चलती हैं, इसे प्रतिचक्रवात कहा जाता है । यानि उच्च, वायुदाब क्षेत्र के चारों तरफ पवनों का परिक्रमण प्रति चक्र वाती परिसंचरण कहा जाता है । उच्च दाब क्षेत्रों में वायु का अवतलन होगा और धरातल पर अपसरित होगी। इसमें वाताग्र ( Fronts ) का अभाव होता है ।

⦿ प्रतिचक्रवात में वायु की दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सूइयों के अनुकूल ( Clockwise ) तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सूइयों के विपरीत ( Anticlockwise ) होती है ।

नोट: चक्रवात में हवा केन्द्र की तरफ आती है और ऊपर उठकर ठंडी होती है और वर्षा कराती है,जबकि प्रतिचक्रवात में मौसम साफ होता है ।

चक्रवात तथा प्रतिचक्रवात में पवनों की दिशा का प्रभाव

दाब पद्धति  केंद्र में दाब की दशा
पवन की दिशा का प्रारूप
( उत्तरी गोलार्द्ध )
पवन की दिशा का प्रारूप
( दक्षिणी गोलार्द्ध )
चक्रवात निम्न घड़ी की सुई की दिशा के विपरीत घड़ी की सुई की दिशा के अनुरूप
प्रतिचक्रवात उच्च घड़ी की सुई की दिशा के अनुरूप घड़ी की सुई की दिशा के विपरीत

⦿ तड़ितझंझा व टोरनेडो : यह भयंकर विध्वसंक अल्पकालीन स्थानीय तूफान है । यह अपेक्षाकृत कम क्षेत्रफल तक ही सीमित होते हैं । तड़ितझंझा उष्ण आर्द्र दिनों में प्रबल संवहन के कारण उत्पन्न होते हैं । तड़ितझंझा एक पूर्ण विकसित कपासी वर्षी मेघ है जो गरज व बिजली उत्पन्न करते हैं । जब यह बादल अधिक ऊँचाई तक चले जाते हैं, जहाँ तापमान शून्य से कम रहता है, तो इससे ओले बनते है और ओला वृष्टि होती है । आर्द्रता कम होने पर ये तड़ितझंझा धूल भरी आँधीयाँ लाते हैं । तड़ितझंझा की विशेषता उष्ण वायु का प्रबल ऊर्ध्वप्रवाह है, जिसके कारण बादलों का आकार बढ़ता है और ये अधिक ऊँचाई तक पहुँचते हैं । इसके कारण वर्षण होता है । भयानक तड़ितझंझा से कभी-कभी वायु आक्रामक रूप में हाथी की सूंड की तरह सर्पिल अवरोहण करती है । इसमें केन्द्र पर अत्यंत कम वायुदाब होता है और यह व्यापक रूप से भयंकर विनाशकारी होते हैं । इस परिघटना को टोरनेडो कहते हैं । टोरनेडो सामान्यतः मध्य अक्षांशों में उत्पन्न होते हैं । समुद्र पर टोरनेडो को जल स्तंभ ( water spouts ) कहते हैं । यह जल एवं स्थल दोनों में उत्पन्न होता है । इसमें स्थलीय हवाओं का वेग 325 किमी प्रति घंटा होता है ।

नोट: ऑस्ट्रेलिया एवं संयुक्त राज्य अमेरिका के मिसीसिपी इलाको में इस तूफान को टोरनेडो कहा जाता है ।

⦿ हरीकेन : अटलांटिक महासागर में उठने वाली तथा पश्चिमी द्वीप समूह के चारों ओर चलने वाली भयंकर चक्रवाती तूफान है । इसकी गति 121 किमी / घंटा होती है ।
⦿ टाइफून : प्रशांत महासागर में उठने वाली तथा चीन सागर में चलने वाली वक्रगामी कटिबन्धी चक्रवात को टाइफून कहते हैं । इसकी गति 160 किमी / घंटा होती है ।

बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात ( Extra tropical cyclones )

वे चक्रवातीय वायु प्रणालियाँ, जो उष्ण कटिबंध से दूर, मध्य व उच्च अक्षांशों में विकसित होती हैं, उन्हें बहिरूष्ण या शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात कहते हैं । मध्य तथा उच्च अक्षांशों में जिस क्षेत्र से ये गुजरते हैं, वहाँ मौसम संबंधी अवस्थाओं में अचानक तेजी से बदलाव होते हैं । बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात ध्रुवीय वाताग्र के साथ-साथ बनते हैं । आरंभ में वाताग्र अचर होता है । उत्तरी गोलार्द्ध में वाताग्र के दक्षिण में कोष्ण व उत्तर दिशा से ठंढ़ी हवा प्रवाहित होती है । जब वाताग्र के साथ वायुदाब कम हो जाता है, कोष्ण वायु उत्तर दिशा की ओर तथा ठंढी वायु दक्षिण दिशा में घड़ी की सुईयों के विपरीत चक्रवातीय परिसंचरण करती है । इस चक्रवातीय प्रवाह से बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात विकसित होता है जिसमें एक उष्ण वाताग्र तथा एक शीत वाताग्र होता है । कोष्ण वायु आक्रामक रूप में ठंडी वायु के ऊपर चढ़ती है और उष्ण वाताग्र के पहले भाग में स्तरी मेघ दिखाई देते हैं और वर्षा होती है । शीत वाताग्र के साथ कपासी मेघ बनते हैं । शीत वाताग्र उष्ण वाताग्र की अपेक्षा तीव्र गति से चलते हैं और अंततः उष्ण वाताग्रों को पूरी तरह ढक लेते हैं । यह कोष्ण वायु ऊपर उठती है और इसका भूतल से कोई संपर्क नहीं रहता तथा अधिविष्ट वाताग्र बनता है एवं चक्रवात धीरे-धीरे क्षीण हो जाता है ।

उष्ण कटिबंधीय चक्रवात ( Tropical Cyclones )

उष्ण कटिबंधीय चक्रवात आक्रामक तूफान है जिनकी उत्पति उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों के महासागरों पर होती है और ये तटीय क्षेत्रों की तरफ गतिशील होते हैं । ये चक्रवात आक्रामक पवनों के कारण विस्तृत विनाश, अत्यधिक वर्षा और तूफान लाते हैं । ये चक्रवात विध्वंसक प्राकृतिक आपदाओं में से एक है । हिन्द महासागर में ये चक्रवात अटलांटिक महासागर में हरीकेन के नाम से, पश्चिमी प्रशांत और दक्षिणी चीन सागर में टाइफून और पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में विली-विलीज के नाम से जाने जाते हैं । उष्ण कटिबंधीय चक्रवात, उष्ण कटिबंधीय महासागरों में उत्पन्न और विकसित होते हैं । इनकी उत्पति व विकास के लिए अनुकूल स्थितियाँ हैं-
1. बृहत समुद्री सतह जहाँ तापमान 27°C से अधिक हो
2. कोरिऑलिस बल का होना
3. ऊर्ध्वाधर पवनों की गति में अंतर कम होना
4. कमजोर निम्न दाब क्षेत्र
5. समुद्री तल तंत्र पर ऊपरी अपसरण

चक्रवातों को और अधिक विध्वंसक करने वाली ऊर्जा संघनन प्रक्रिया द्वारा ऊँचे कपासी स्तरी मेघों से प्राप्त होती है जो इस तूफान के केन्द्र को घेरे रहती है । समुद्रों से लगातार आर्द्रता की आपूर्ति से ये तूफान अधिक प्रबल होते हैं । स्थल पर पहुँचकर आर्द्रता की आपूर्ति रूक जाती है और ये क्षीण होकर समाप्त हो जाते हैं । वे चक्रवात जो प्राय: 20° उत्तरी अक्षांश से गुजरते हैं, उनकी दिशा अनिश्चित होती है और ये अधिक विध्वंसक होते हैं ।

नोट: वह स्थान जहाँ से उष्ण कटिबंधीय चक्रवात तट को पार करके जमीन पर पहुँचते हैं चक्रवात का लैंडफाल कहलाता है ।

बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात और उष्ण कटिबंधीय चक्रवात में अंतर

बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात उष्ण कटिबंधीय चक्रवात
इसमें स्पष्ट वाताग्र प्रणालियाँ होती हैं  इसमें वाताग्र प्रणालियाँ नहीं होती हैं 
इसकी उत्पति जल व स्थल दोनों पर होती है इसकी उत्पति केवल समुद्रों में ही होती है और स्थलीय भागों में पहुंचने पर नष्ट हो जाती है 
इसका प्रभाव क्षेत्र विस्तृत होता है इसका प्रभाव क्षेत्र बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात से कम होता है 
यह पश्चिमी पवनों के साथ पश्चिम से पूर्व दिशा में चलता है यह पूर्व से पश्चिम दिशा में चलता है, यानी व्यापारिक पवनों  का अनुगमन करते है

यह भी देखें
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