नमस्कार दोस्तों Sarkaripen.com में आप लोगो का स्वागत है क्या आप Parmanu bhautiki,Nuclear physics,परमाणु भौतिकी की जानकारी पाना चाहते है , आज के समय किसी भी नौकरी की प्रतियोगिता की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण विषय है तथा Nuclear physics in hindi की जानकारी होना बहुत आवश्यक है इसलिए आज हम Parmanu bhautiki विषय के बारे में बात करेंगे। निचे परमाणु भौतिकी की जानकारी निम्नवत है।
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Nuclear physics |
Parmanu bhautiki,Nuclear physics,परमाणु भौतिकी
⦿ परमाणु (Atom): परमाणु वे सूक्ष्मतम कण हैं, जो रासायनिक क्रिया में भाग ले सकते हैं, परन्तु स्वतंत्र अवस्था में नहीं रहते। परमाणु मुख्यतः तीन मूल कणों इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन व न्यूट्रॉन से मिलकर बना होता है। परमाणु के केन्द्र में एक नाभिक होता है, जिसमें प्रोटॉन एवं न्यूट्रॉन रहते हैं, इलेक्ट्रॉन नाभिक के चारों ओर चक्कर लगाते हैं।
⦿ परमाणु में प्रोटॉन एवं इलेक्ट्रॉन की संख्या समान एवं आवेश विपरीत होते हैं, जिसके कारण यह उदासीन होता है।
मूल कणों की विशेषताएँ
कण | द्रव्यमान (किग्रा.) | आवेश (कूलॉम) | खोजकर्ता |
---|---|---|---|
प्रोटोन | 1.672×`10^{-27}` | + 1.6×`10^{-19}` | गोल्डस्टीन |
न्यूट्रॉन | 1.675×`10^{-27}` | 0 | चैडविक |
इलेक्ट्रॉन | 9.108×`10^{-31}` | - 1.6×`10^{-19}` | जे. जे. थामसन |
⦿ आज मूल कणों की संख्या 30 से ऊपर पहुँच चुकी है, कुछ मूल कणों का विवरण निम्न हैं -
कण | द्रव्यमान (किग्रा.) | आवेश | खोजकर्ता |
---|---|---|---|
पॉजिट्रॉन (इलेक्ट्रॉन का एंटिकण) | 9.108×`10^{-31}` | + 1.6×`10^{-19}` | एण्डरसन |
न्यूट्रिनो | 0 | 0 | पाऊली |
पाई-मैसोन (अस्थायी, जीवनकाल सेकेंड) | इलेक्ट्रॉन का 274 गुना | धनात्मक एवं ऋणात्मक दोनों | युकावा |
फोटॉन (वेग-प्रकाश के वेग के बराबर) | 0 | 0 | आइन्स्टीन |
कैथोड किरण (Cathode ray)
जब विसर्जन नलिका (dis-charge tube) के सिरों पर 20 किलो वोल्ट (20 kV) का विभान्तर लगाया जाता है और उसका दाब 0.1 मिली मीटर पारे के स्तम्भ के बराबर होता है, तो उसके कैथोड से एक इलेक्ट्रॉन पुँज (beam) निकलने लगता है, इसे ही कैथोड किरण कहते हैं। अतः कैथोड किरणें केवल उच्च ऊर्जा वाले इलेक्ट्रॉनों का पुँज है।
गुण
1. कैथोड किरण को केवल गैस का प्रयोग करके पैदा किया जा सकता है।
2. कैथोड किरणों के उत्पादन में विभव का स्रोत प्रेरण कुंडली (Induction Coil) होता है, जो कम विभव के सेल से बहुत उच्च विभव प्रदान करता है। यह पारस्परिक प्रेरण के सिद्धांत पर कार्य करता है।
3. कैथोड किरणें अदृश्य होती हैं और सीधी रेखाओं में चलती हैं।
4. कैथोड किरणें ऋणात्मक होती हैं, इसलिए ये कैथोड से एनोड की तरफ गमन करती हैं। ये इलेक्ट्रॉन की बनी होती हैं और अपनी सतह के लंबवत् निकलती हैं।
5. कैथोड किरण का वेग, प्रकाश के वेग का 1/10 गुना होता है।
6. यह किरण विद्युत् एवं चुम्बकीय क्षेत्र में विक्षेपित होती है।
7. यह गैसों को आयनीकृत कर देती है एवं धातु पर ऊष्मीय प्रभाव दिखलाती है।
8. यह फोटोग्राफिक प्लेट को प्रभावित करती है।
9. इसकी वेधन क्षमता कम होती है। यह पतली धातु की चादर से पार कर जाती है।
10. कैथोड किरणें जब विद्युतीय क्षेत्र से होकर लम्बवत गुजरती हैं, तो इसका रास्ता परवलयाकार होता है।
नोट: जब कैथोड किरणें किसी उच्च परमाणु क्रमांक वाली धातु (जैसे —टंगस्टन) पर गिरती हैं, तो ये X-किरणें उत्पन्न करती हैं। |
धनात्मक किरणें (Positive or Canal Rays)
विसर्जन नलिका में यदि छिद्र युक्त कैथोड प्रयुक्त किया जाए, तो इनसे निकलने वाली किरणें कैथोड किरणों के ठीक विपरीत दिशा में विक्षेपित हो जाती हैं और एनोड की ओर से कुछ किरणें निकलती हैं। अतः ये एनोड से निकलने वाली धनावेशित किरणें हैं। इनका पता 1886 ई. में गोल्डस्टीन ने लगाया था।
गुण
1. ये किरणें धनावेशित होती हैं।
2. ये प्रतिदीप्ति तथा स्फुरदीप्ति उत्पन्न करती हैं।
3. ये विद्युत् व चुम्बकीय क्षेत्र में विक्षेपित हो जाती हैं।
अर्द्धचालक (Semi Conductor)
इसकी प्रतिरोधकता या चालकता धातुओं तथा विद्युतरोधी पदार्थों के बीच की होती है।
⦿ अर्द्धचालक की प्रतिरोधकता एवं चालकता-
ρ ~ `10^{5}` - `10^{6}`Ωm , σ ~ `10^{5}` - `10^{6}Sm^{-1}`
⦿ धातु की प्रतिरोधकता एवं चालकता-
ρ ~ `10^{-2}` - `10^{-8}`Ωm , σ ~ `10^{2}` - `10^{8}Sm^{-1}`
⦿ विद्युतरोधी की प्रतिरोधकता एवं चालकता-
ρ ~ `10^{11}` - `10^{19}`Ωm , σ ~ `10^{-11}` - `10^{-19}Sm^{-1}`
⦿ तात्विक अर्द्धचालक– Si और Ge
⦿ यौगिक अर्द्धचालक- 1. अकार्बनिक: Cds, GaAs CdSe, InP, 2. कार्बनिक: एंथ्रासीन, मादित (Doped) थैलोस्यानीस आदि, 3. कार्बनिक बहुलक: पॉली पाइरोल, पॉली ऐनिलीन, पॉली थायोफीन आदि।
⦿ नैज अर्द्धचालक (Intrinsic semi-conductors): जिन अर्द्धचालकों में मुक्त इलेक्ट्रॉन तथा कोटर ऊष्मीय प्रभाव द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं, उन्हें नैज अर्द्धचालक कहा जाता है। नैज अर्द्धचालकों में मुक्त इलेक्ट्रॉनों की संख्या (`n_{e}`), होलों की संख्या (`n_{h}`) के बराबर होती है।
`n_{e}=n_{h}=n_{i}`
यहाँ `n_{i}` को नैज वाहक सांद्रता कहते हैं। अर्द्धचालकों में यह अद्वितीय गुण होता है कि उनमें इलेक्ट्रॉनों के साथ-साथ होल भी गति करते हैं।
⦿ होल प्रभावी धनात्मक आवेश वाले एक आभासी मुक्त कण की तरह व्यवहार करता है। यह ऋणात्मक विभव की ओर गति करते हैं। ऐसे अर्द्धचालकों में प्रवाहित धारा ( I ), इलेक्ट्रॉन धारा `I_{e}` एवं होल धारा `I_{h}` के योग के बराबर होगी-
`I=I_{e}=I_{h}`
नोट: नैज अर्द्धचालकों की चालकता उसके ताप पर निर्भर करती है। परन्तु कक्ष ताप पर इसकी चालकता बहुत ही कम होती है। |
⦿ अपद्रव्यी अर्द्धचालक (Extrinsic Semiconductor): जब किसी शुद्ध अर्द्धचालक में कोई उपयुक्त अशुद्धि अत्यल्प मात्रा में मिलाई जाती है तो उसकी चालकता में कई गुना वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार के पदार्थों को अपद्रव्यी अर्द्धचालक कहते हैं। वांछित अशुद्धि को सावधानीपूर्वक मिश्रित करना मादन (Doping) या अपमिश्रण कहलाता है व अशुद्धि परमाणु अपमिश्रक (Dopants) कहलाते हैं। इस प्रकार के पदार्थ को मादित (Doped) अर्द्धचालक भी कहते हैं। अपमिश्रक ऐसा होना चाहिए जो मूल अर्द्धचालक पदार्थ के जालक को विकृत न करे। अपमिश्रक के अणु तथा अर्द्धचालक पदार्थ के अणुओं का आकार लगभग समान हो।
⦿ चतुः संयोजक Si एवं Ge के मादन के लिए दो प्रकार के अपमिश्रक उपयोग किए जाते हैं- 1. पंच संयोजक: जैसे आर्सेनिक (As), एण्टीमनी (Sb), फास्फोरस (P) आदि। 2. त्रिसंयोजक: जैसे इंडियम (In), बोरॉन (B), एल्युमिनियम (AI) आदि।
दाता (Donor): पंच संयोजी अपद्रव्य दाता कहे जाते हैं। ग्राही (Acceptor): त्रिसंयोजी अपद्रव्य परमाणु ग्राही कहे जाते हैं। डोपिंग (Doping): अपद्रव्य मिलाए जाने की प्रक्रिया को डोपिंग कहते हैं। |
⦿ n-प्रकार के अर्द्धचालक: ऐसे बाह्य अर्द्धचालक जिनमें विद्युत का प्रवाह मुक्त इलेक्ट्रॉनों की संख्या बढ़ जाने के कारण होता है, n-प्रकार के अर्द्धचालक कहलाते हैं। जब शुद्ध अर्द्धचालक में पंच संयोजी अपद्रव्य मिला दिया जाता है, तो इस प्रकार के अर्द्धचालक प्राप्त होते हैं। पंचसंयोजक अपमिश्रक विद्युत चालन के लिए एक अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन प्रदान करता है और इसीलिए इसे दाता अशुद्धि (Donor Impurity) कहते हैं। अतः पंचसंयोजक अपमिश्रक के साथ अपमिश्रण होने पर नैज अर्द्धचालक में इलेक्ट्रॉन बहुसंख्यक आवेश वाहक तथा होल अल्पांश आवेश वाहक बन जाते हैं। n- प्रकार के अर्द्धचालक के लिए-
`n_{e}`>>`n_{h}`
⦿ p-प्रकार के अर्द्धचालक: जिन अर्द्धचालकों में विद्युत का प्रवाह कोटरों (Hole) की गति के कारण होता है, उन्हें p-प्रकार के अर्द्धचालक कहते हैं। शुद्ध अर्द्धचालक में त्रिसंयोजी अपद्रव्य मिलाने से ऐसे अर्द्धचालक प्राप्त होते हैं। ऐसे अर्द्धचालक के लिए होल, बहुसंख्यक वाहक तथा इलेक्ट्रॉन अल्पसंख्यक वाहक है। अतः p-प्रकार के अर्द्धचालकों के लिए-
`n_{h}`>>`n_{e}`
नोट: ताप बढ़ाने पर अर्द्धचालक की चालकता बढ़ती है, परन्तु चालक की चालकता घटती है। |
⦿ p-n संधि (p-n Junction): p-n संधि बहुत सी अर्द्धचालक युक्तिओं जैसे डायोड, ट्रांजिस्टर आदि की मूल इकाई है।
⦿ अर्द्धचालक डायोड: यह मूल रूप में एक p-n संधि होती है, जिसके सिरों पर धात्विक संपर्क जुड़े होते हैं ताकि इस संधि पर कोई बाह्य वोल्टता अनुप्रयुक्त की जा सके।
⦿ अग्रदिशिक बायस में p-n संधि डायोड: जब किसी अर्द्धचालक डायोड के दो सिरों के बीच कोई बाह्य बोल्टता V इस प्रकार अनुप्रयुक्त जाती है कि बैटरी का धन टर्मिनल p-फलक तथा ऋण टर्मिनल n-फलक से संयोजित करते हैं तो इसे अग्रदिशिक बायसित कहते हैं।
⦿ पश्चदिशिक बायस में p-n संधि डायोड: जब किसी अर्द्धचालक डायोड के दो सिरों के बीच कोई बाह्य वोल्टता (V) इस प्रकार अनुप्रयुक्त करते हैं कि बैटरी के धन टर्मिनल को n-फलक से तथा ऋण टर्मिनल को p-फलक से जोड़ते हैं, तो डायोड को पश्चदिशिक बायसित कहते हैं।
⦿ डायोड वाल्व (Diode Valve): वैज्ञानिक फ्लेमिंग द्वारा सन् 1904 में निर्मित यह एक ऐसी निर्वात नलिका है, जिसमें केवल दो ही इलेक्ट्रोड (तन्तु एवं प्लेट) होते हैं, तन्तु टंगस्टन का एक पतला तार होता है, जिस पर बेरियम ऑक्साइड का लेप होता है, इसे बैटरी से गर्म करने पर इलेक्ट्रॉन निकलते हैं, जो धनावेशित प्लेट की ओर चलते हैं, इससे डायोड परिपथ में प्लेट धारा का प्रवाह होने लगता है। प्लेट धारा ओम के नियम का पालन न करके चाइल्ड लैगूमर नियम (`I\propto V^{3/2}`) का पालन करती है।
नोट: कैथोड के आस-पास एकत्रित इलेक्ट्रॉन समूह को अन्तराल आवेश कहा जाता है। |
उपयोग: डायोड वाल्व ऋजुकारी (Rectifier) के रूप में प्रयुक्त होता है। अर्थात् इसके द्वारा प्रत्यावर्ती धारा (A.C.) को दिष्ट धारा (D.C.) में बदलते हैं।
⦿ ट्रायोड वाल्व (Triode Valve): यह तीन इलेक्ट्रोड-प्लेट, ग्रिड व तन्तु वाली एक निर्वात नलिका है। इसका निर्माण 1907 ई. में ली. डी. फोरेस्ट (अमेरिका) ने किया था।
उपयोग: ट्रायोड वाल्व का प्रवर्धक (Amplifier), दोलित्र (Oscillator), प्रेसी (Transmitter) एवं संसूचक (Detector) की तरह प्रयोग करते हैं।
⦿ जेनर डायोड: इसका आविष्कार सी जेनर ने किया था। इसे भंजन क्षेत्र में पश्चदिशिक बायस में प्रचालित करने के लिए डिजाइन किया गया है व इसका उपयोग वोल्टता नियंत्रक के रूप में किया जाता है।
⦿ फोटो डायोड: इसका उपयोग प्रकाशित संकेतों के संसूचन में होता है।
⦿ प्रकाश उत्सर्जक डायोड (LED): इसका आविष्कार निक होलो न्याक ने किया था। यह विद्युत ऊर्जा को प्रकाश ऊर्जा में रूपांतरित करता है। जिन अर्द्धचालकों का उपयोग दृश्य LED के निर्माण में होता है उनका बैंड अंतराल कम से कम 1.8eV होना चाहिए। (दृश्य प्रकाश का स्पेक्ट्रमी परिसर लगभग 0.4 μm से 0.7 μm है अर्थात लगभग 3 eV से 1.8 eV तक होता है।) यौगिक अर्द्धचालक गैलियम आर्सेनाइड फोस्फाइड (`GaAs_{1-x}P_{x}`) का उपयोग विभिन्न वर्णों के LED के निर्माण में होता है। `GaAs_{0.6}P_{0.4}`(`E_{g}`~1.9 eV) का उपयोग लाल LED बनाने में तथा GaAs (`E_{g}`~1.4 eV) का उपयोग अवरक्त LED बनाने में होता है। इन LED का उपयोग सुदूर नियंत्रण, चोर घंटी संयंत्रों, प्रकाशिक संचार आदि में किया जाता है।
सौर सेल
⦿ सौर सेल मूल रूप में एक ऐसी p-n संधि होती हैं जो सौर विकिरणों के आपतित होने पर emf उत्पन्न करती है। यह फोटो डायोड के सिद्धान्त पर ही कार्य करता है।
⦿ सौर सेल के निर्माण के लिए आदर्श पदार्थ के रूप में उन अर्द्धचालकों को लेते हैं जिनका बैंड अन्तराल 1.5 eV के निकट होता है। सौर सेलों के निर्माण के लिए प्रयुक्त होने वाले अर्द्धचालक पदार्थ जैसे- Si (`E_{g}` = 1.1eV), GaAs (`E_{g}` = 1.43 eV), CdTe (`E_{g}` =1.45 eV), `CuInSe_{2}` (`E_{g}` = 1.04 eV) आदि है।
⦿ सौर सेलों के निर्माण के लिए पदार्थों के चयन के लिए मुख्य कसौटियाँ हैं- 1. बैंड अन्तराल (~1.0 - 1.8 eV) 2. अधिक प्रकाश अवशोषण क्षमता (~`10^{4}cm^{-1}`) 3. वैद्युत चालकता 4. कच्चे पदार्थ की उपलब्धता 5. लागत।
संधि ट्रांजिस्टर
⦿ 1947 में ट्रांजिस्टर के आविष्कार का श्रेय बेल टेलीफोन प्रयोगशाला USA के जे. बारडीन तथा डब्ल्यू. एच. बेटन को जाता है। यह ट्रांजिस्टर एक बिन्दु सम्पर्क ट्रांजिस्टर था।
⦿ पहले संधि ट्रांजिस्टर का आविष्कार 1951 में विलियम शाकले ने दो p-n संधियों को एक दूसरे के पश्च फलकों को जोड़कर किया।
नोट: जब तक केवल संधि ट्रांजिस्टर ज्ञात था, इसे केवल ट्रांजिस्टर कहा जाता था। परन्तु समय के साथ नए-नए ट्रांजिस्टरों का आविष्कार हुआ व नए ट्रांजिस्टर को पुरानों से भेद करने के लिए इन्हें द्विध्रुवी संधि ट्रांजिस्टर (Bipolar Junction Transistor BJT) कहते हैं। |
⦿ किसी ट्रांजिस्टर में तीन अपमिश्रित क्षेत्र होते हैं जो मिलकर अपने बीच में दो p-n संधियाँ बनाते हैं।
1. n-p-n ट्रांजिस्टर: इसमें n-प्रकार के अर्द्धचालक के दो खंड (उत्सर्जक तथा संग्राहक), p-प्रकार के अर्द्धचालक के एक खंड (आधार) द्वारा पृथक किए जाते हैं।
2. p-n-p ट्रांजिस्टर: इसमें p-प्रकार के अर्द्धचालक के दो खंड (उत्सर्जक एवं संग्राहक), n-प्रकार के अर्द्धचालक के एक खंड (आधार) द्वारा पृथक किए जाते हैं।
★ उत्सर्जक (Emitter): यह ट्रांजिस्टर में प्रवाहित धारा के लिए बहुसंख्यक आवेश वाहक की अत्यधिक मात्रा में आपूर्ति करता है। ★ आधार (Base): यह केन्द्रीय खंड होता है। यह अत्यन्त पतला तथा कम अपमिश्रित होता है। ★ संग्राहक (Collector): यह खंड उत्सर्जक द्वारा प्रदान किए गए बहुसंख्यक आवेश वाहकों के अधिकांश भाग का संग्रहण करता है। संग्राहक फलक साधारण अपमिश्रित होता है परन्तु साइज में यह उत्सर्जक से बड़ा होता है। |
ट्रांजिस्टर का उपयोग
मूल रूप से इसका आविष्कार प्रवर्धक की भाँति कार्य करने के लिए किया गया था जो किसी सिग्नल को आवर्धित प्रति उत्पन्न करता है। वर्तमान में ट्रांजिस्टर का उपयोग अनेक प्रकार से होता है। इसे प्रवर्धक, एम्पलीफायर, स्विच, वोल्टेज नियामक (रेगुलेटर), सिग्नल मॉडुलेटर, आसिलेटर आदि के रूप में किया जाता है। पहले जो कार्य ट्रायोड से किए जाते थे, वे अधिकांशतः अब ट्रांजिस्टर के द्वारा किए जाते हैं।
⦿ अतिचालकता (Superconductivity): इसकी खोज 1911 ई. में केमरलिंध ओन्स ने की थी। अत्यन्त निम्न ताप पर कुछ पदार्थों का विद्युत् प्रतिरोध शून्य हो जाता है, इन्हें ही अतिचालक (superconductor) कहते हैं और इस गुण को अतिचालकता कहते हैं।
⦿ 4.2 K (अर्थात् -268.8°C) पर पारा अतिचालक बन जाता है।
⦿ नियोबियस्टीन काफी ऊँचे ताप (100 K) पर भी अति चालकता प्राप्त कर लेती है।
⦿ अतिचालक पूर्णतः प्रति चुम्बकीय होता है, अर्थात वह पूर्ण चुम्बकीय कवच होता है, जिसे कोई चुम्बकीय बल रेखा भेदकर उसके अन्दर नहीं जा सकती है।
⦿ अतिचालकता के महत्त्व को देखते हुए भारत सरकार ने 1991 ई. में एक राष्ट्रीय अति चालकता विज्ञान एवं तकनीकी बोर्ड की स्थापना की।
यह भी देखें
LATEST JOB श्रोत- अमर उजाला अखबार | |
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