नमस्कार दोस्तों Sarkaripen.com में आप लोगो का स्वागत है क्या आप Brahmand,Universe,ब्रह्मांड की जानकारी पाना चाहते है , आज के समय किसी भी नौकरी की प्रतियोगिता की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण विषय है तथा Universe in hindi की जानकारी होना बहुत आवश्यक है इसलिए आज हम Brahmand विषय के बारे में बात करेंगे। निचे ब्रह्मांड की जानकारी निम्नवत है।
Brahmand,Universe,ब्रह्मांड
Universe

Brahmand,Universe,ब्रह्मांड

⦿ पृथ्वी को घेरने वाली अपार आकाश तथा उसमें उपस्थित सभी खगोलीय पिंड (जैसे— मंदाकिनी, तारे, ग्रह, उपग्रह आदि) एवं सम्पूर्ण ऊर्जा को समग्र रूप से ब्रह्मांड (Universe) कहते हैं। ब्रह्मांड से संबंधित अध्ययन को ब्रह्मांड विज्ञान (Cosmology) कहते हैं। ब्रह्मांड इतना विशाल है, जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। इसके आकार की विशालता, इसमें तारों की संख्या, अपार दूरी तथा द्रव्यमान का अनुमान लगाना कठिन है। फिर भी, बड़े परिमाण की संख्याओं के सहारे इनका अनुमान लगाने की कोशिश की जाती है। खगोल वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड में सैकड़ों अरब (`10^{11}`) मंदाकिनी हैं तथा प्रत्येक मंदाकिनी में लगभग एक सौ अरब (`10^{11}`) तारे हैं। इस प्रकार तारों की कुल संख्या `10^{11}×10^{11}=10^{22}` कोटि की होगी।

ब्रह्मांड की उत्पत्ति (Evolution on of the universe)

ब्रह्मांड के प्रारंभ तथा इसके भविष्य के प्रश्न को लेकर अनेक सिद्धान्त व्यक्त किये गये हैं। उन सभी सिद्धान्तों में बिग बैंग सिद्धान्त (Big Bang Theory) को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त हुई। यह सिद्धांत उस समय प्रतिपादित किया गया जब खगोल विज्ञानियों ने विकसित टेलिस्कोप तथा अन्य वैज्ञानिक साधनों द्वारा प्रेक्षणों के आधार पर यह बतलाया कि हमारा ब्रह्मांड लगातार फैलता जा रहा है।

⦿ ब्रह्मांड के प्रसार का सिद्धान्त, डॉप्लर प्रभाव पर प्राप्त प्रेक्षण जिसे अवरक्त विस्थापन (Red shift) कहा जाता है, पर आधारित है।

⦿ अवरक्त विस्थापन (Red shift): यदि हम प्रकाश स्रोत की ओर चले तो प्रकाश तरंग की आवृत्ति में आभासी वृद्धि होगी अर्थात यह दृश्य प्रकाश के स्पेक्ट्रम के नीले वर्ण की ओर विस्थापित होगी। इसके विपरीत यदि प्रकाश-स्रोत की दूरी हमसे बढ़ती जाए तो प्राप्त प्रकाश की आवृत्ति में आभासी ह्रास होगा और यह आवृत्ति दृश्य स्पेक्ट्रम के लाल वर्ण की ओर विस्थापित होगी। इस प्रकार के विस्थापन को अवरक्त विस्थापन कहते हैं।

⦿ अवरक्त विस्थापन के आधार पर ही 1929 ई. में कैलीफोर्निया स्थित माउंट विल्सन वेधशाला (Observatory) में कार्य करते हुए एडबिन हब्बल ने ब्रह्मांड में होने वाले प्रसार की पुष्टि की। अपने प्रेक्षणों के दौरान हब्बल ने पाया कि कुछ निकटतम मंदाकिनियों के वर्णक्रमों की अवशोषण रेखाएँ वर्णक्रम के लाल छोर की ओर खिसक रही हैं। अतः अपने प्रेक्षणों के क्रम में वे निम्नांकित दो निष्कर्षों पर पहुँचे—
1. सभी मंदाकिनी (Galaxy) हमसे दूर जा रहे हैं।
2. कोई मंदाकिनी हमसे जितनी दूरी पर है वह उतनी ही तेजी से हमसे दूर जा रहा है। इस प्रकार मंदाकिनी का वेग (v), दूरी (d) के समानुपाती होगा, अर्थात् v ∝ d या, v = Hd उपर्युक्त सूत्र को हब्बल का नियम कहते हैं। यहाँ H एक नियतांक है जिसे हब्बल नियतांक या हब्बल पैरामीटर (Hubble Parameter) कहा जाता है। नियतांक H का मात्रक `\frac{kms^{-1}}{Mpc}` तथा इसका मान 67`\frac{kms^{-1}}{Mpc}` होता है। (Mpc - मेगा पारसेक) हब्बल पैरामीटर का मात्रक समय का व्युत्क्रम (inverse of time) होता है। अतः अवश्य ही समय का मात्रक होगा। इस प्रकार हम यदि समय को पीछे लेते जाएँ तो ब्रह्मांड की आयु का आकलन से `15×10^{9}` वर्ष आता है। प्राप्त प्रेक्षणों के आधार पर ब्रह्मांड की आयु `10×10^{9}` वर्ष से `19×10^{9}` वर्ष के बीच होती है।

नोट: हब्बल के मंदाकिनियों के प्रतिसरण (Hecession) के नियम पर आइजक ऐसीमोव का कहना है कि हब्बल के निरूपण के अनुसार यदि दूरी के साथ प्रतिसरण की गति बढ़ती जाए तो 125 करोड़ प्रकाश वर्ष की दूरी पर मंदाकिनियाँ इस तेजी से प्रतिसरण करेंगी कि उन्हें देख पाना हमारे लिए संभव नहीं होगा।

मंदाकिनी (Galaxy)

मंदाकिनी अरबों तारों का एक विशाल निकाय है। तारे मंदाकिनियों के साथ बंधे रहते हैं इसके लिए चारों मौलिक बलों (गुरुत्वाकर्षण बल, विद्युत् चुम्बकीय बल (Electron magnetic Force) प्रबल या दृढ़ बल (Strong Force) और कमजोर बल (Weak force) में गुरुत्वाकर्षण बल जिम्मेदार होता है। ब्रह्मांड में लगभग 100 अरब मंदाकिनियाँ (`10^{11}` मंदाकिनियाँ) हैं, और प्रत्येक मंदाकिनी में औसतन 100 अरब तारे (`10^{11}` तारे) होते हैं। यानी ब्रह्मांड में तारों की कुल संख्या लगभग `10^{22}` है। प्रत्येक मंदाकिनी में तारों के अतिरिक्त गैसें तथा धूल होती हैं। मंदाकिनी का 98% भाग तारों से तथा शेष 2% गैसों या धूल से बना है।

नोट: मंदाकिनी की विशालता के कारण इसे प्रायद्वीप ब्रह्मांड कहा जाता है।

मंदाकिनी का वर्गीकरण (Classification of Galaxy)

मंदाकिनियों को प्रायः उनके आकृति के आधार पर तीन वर्गों में बाँटा गया है— 1. सर्पिल (Spiral) 2. दीर्घवृत्तीय (Elliptical) और 3. अनियमित (Irregular)। अब तक की ज्ञात मंदाकिनियों में 80% सर्पिल, 17% दीर्घवृत्तीय व 3% अनियमित आकार वाली हैं। हमारी मंदाकिनी- दुग्धमेखला (Milkyway) या आकाशगंगा और इसकी सबसे नजदीकी मंदाकिनी देवयानी (Andromeda) सर्पिल आकार वाली मंदाकिनी है। सर्पिल मंदाकिनियाँ दूसरी मंदाकिनियों से प्रायः काफी बड़ी होती है।

दुग्धमेखला (Our own galaxy- The Milkyway)

⦿ हमारा सौरमंडल दुग्धमेखला (Milkyway) या आकाशगंगा नामक मंदाकिनी का सदस्य है। इसका व्यास लगभग `10^{5}` प्रकाश वर्ष और यह मंथर गति से चक्कर काट रही है। दुग्धमेखला मंदाकिनी, अपने केन्द्र के चारों ओर धीरे-धीरे घूमती है और तारे इसके केन्द्र के चारों ओर धीरे-धीरे घूमते हैं। सूर्य भी (सौरमंडल सहित) इसके केन्द्र के चारों ओर घूर्णन करता है। इसे एक परिक्रमा पूरी करने में लगभग 250 मिलियन (25 करोड़) वर्ष लगता है। पृथ्वी पर लोग, दुग्धमेखला मंदाकिनी का अभिमुख दृश्य (end-on view or side view) देख पाते हैं, क्योंकि पृथ्वी स्वयं इस मंदाकिनी का हिस्सा है।

⦿ हमारी मंदाकिनी में तारे चपटी चक्रिकानुमा संरचना में अन्तर्विष्ट होते हैं जो अंतरिक्ष के अन्दर `10^{5}` प्रकाश वर्ष तक फैली होती है। चक्रिका केन्द्र काफी मोटी होती है जो मंदाकिनी के केन्द्र पर तारों के अपेक्षाकृत उच्च सांद्रण को दर्शाता है।

⦿ हमारा सूर्य और उसके ग्रह, मंदाकिनी के केन्द्रीय भाग से लगभग `3×10^{4}` प्रकाश वर्ष की दूरी पर इस चक्रीयनुमा संरचना के एक पार्श्व पर स्थित है। अतः सूर्य दुग्धमेखला मंदाकिनी के केन्द्र से काफी दूर है

⦿ यदि आकाश स्वच्छ है, तो दुग्धमेखला मंदाकिनी अंधेरी रात में उत्तर से दक्षिण आकाश में हल्के सफेद तारों की चौड़ी पट्टी के रूप में प्रतीत होती है, जो करोड़ों टिमटिमाते तारों से मिलकर बनी है। अंधेरी रात में पृथ्वी से देखने पर यह प्रकाश की बहती हुई नदी की तरह प्रतीत होती है, यह आकाश गंगा कहलाती है।

तारामंडल

⦿ तारामंडल (Constellation): पृथ्वी से देखने पर तारों का कोई समूह किसी विशेष आकृति के रूप में प्रतीत होता है। हमारे पूर्वजों ने ऐसे कई तारा समूहों में कुछ आकृतियों की कल्पना की और उनको विशिष्ट नाम दिये। तारों के किसी ऐसे समूह को तारामंडल कहते हैं। इन तारामंडलों का नामाकरण उनकी आकृति के आधार पर की गई है। प्रमुख तारामंडल हैं-वृहत् सप्तऋषि मंडल (Ursa major), लघु सप्तऋषि (Ursa minor), मृग (Orion), सिग्नस (Cygnus), हाइड्रा (Hydra) आदि।

⦿ आकाश में कुल 89 तारामंडल हैं। इनमें से सबसे बड़ा तारामंडल सेन्टॉरस है जिसमें 94 तारे हैं। हाइड्रा में कम से कम 68 तारे हैं।

⦿ वृहत् सप्तर्षि नामक तारामंडल में बहुत से तारे हैं जिसमें सात सर्वाधिक चमकदार तारे हैं जो आसानी से दिखाई देते हैं। इन तारों से बना तारामंडल सामान्यतया वृहत् सप्तर्षि या बिग डिपर कहलाता है।

⦿ लघु सप्तर्षि में भी अधिक चमक वाले सात प्रमुख तारे हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में वृहत् सप्तर्षि एवं लघु सप्तर्षि तारामंडलों को प्रायः बसंत ऋतु में देखा जा सकता है।

⦿ मृग (Orion) तारामंडल को शीत ऋतु में देखा जा सकता है। मृग सर्वाधिक भव्य तारा-मंडलों में से एक है। इसमें सात चमकीले तारे हैं, जिनमें से चार किसी चतुर्भुज की आकृति बनाते प्रतीत होते हैं। इस चतुर्भुज के एक कोने पर सबसे विशाल तारों में एक बीटलगीज नाम का तारा स्थित है जबकि दूसरे विपरीत कोने पर रिगेल नामक अन्य चमकदार तारा स्थित है। मृग के अन्य तीन प्रमुख तारे तारामंडल के मध्य में एक सरल रेखा में अवस्थित हैं।

तारे

⦿ तारे (Stars) ऐसे खगोलीय पिंड हैं, जो लगातार प्रकाश एवं ऊष्मा उत्सर्जित करते रहते हैं। अतः सूर्य भी एक तारा है। भार के अनुपात में तारों में 70% हाइड्रोजन, 28% हीलियम, 1.5% कार्बन, नाइट्रोजन एवं निऑन तथा 0.5% में लौह एवं अन्य भारी तत्व होते हैं। तारों को, उनके भौतिक अभिलक्षणों जैसे आकार, रंग, चमक (दीप्ति) और ताप के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है।

⦿ तारे तीन रंग के होते हैं: 1. लाल (Red) 2. सफेद (White) और 3. नीला (Blue)। तारे का रंग पृष्ठ ताप द्वारा निर्धारित होता है। तारे, जिनका पृष्ठ ताप अपेक्षाकृत निम्न होता है, लाल रंग के होते हैं, उच्च पृष्ठ ताप वाले तारे सफेद होते हैं जबकि वे तारे, जिनका पृष्ठ ताप अत्यधिक उच्च होता है, रंग में नीले होते हैं।

⦿ प्रॉक्जिमा सैन्टॉरी: यह सूर्य के बाद पृथ्वी के सबसे निकट का तारा है। पृथ्वी से इसकी दूरी 4.22 प्रकाश वर्ष है। ऐल्फा सैन्टॉरी पृथ्वी से 4.3 प्रकाश वर्ष की दूरी पर है।

⦿ सभी तारे (ध्रुवतारा को छोड़कर) रात्रि में आकाश में पूर्व से पश्चिम की ओर चलते प्रतीत होते हैं, क्योंकि पृथ्वी स्वयं अपने धूरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर घूर्णन करती है। तारे विपरीत दिशा में पूर्व से पश्चिम की ओर चलते हुए प्रतीत होते हैं। अतः आकाश में तारों की आभासी गति पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूर्णन के कारण होती है। ध्रुव तारा उत्तरी ध्रुव के ठीक ऊपर स्थिर प्रतीत होता है और समय के साथ अपनी स्थिति नहीं बदलता है क्योंकि यह पृथ्वी के घूर्णन की धुरी (अक्ष) पर स्थित होता है। ध्रुव तारा उस माइनर या लिटिल बियर तारा समूह का सदस्य है।

तारों का जन्म एवं विकास (Birth and Evolution of a star)

⦿ तारे के निर्माण का कच्चा माल मुख्यतः हाइड्रोजन व हीलियम गैस है। तारे का जीवन चक्रमंदाकिनियों में उपस्थित हाइड्रोजन व हीलियम गैसों के घने बादलों के रूप में एकत्रित होने के साथ आरंभ होता है।

⦿ आदि तारा का निर्माण (Formation of a Protostar): तारे का जीवनचक्र आकाशगंगा में हाइड्रोजन तथा हीलियम गैस के संघनन से प्रारंभ होता है जो अन्ततः घने बादलों का रूप धारण कर लेते हैं। इन बादलों को ऊर्ट बादल (Oort clouds) कहा जाता है। इन बादलों का ताप -173°C होता है। जैसे-जैसे इन बादलों का आकार बढ़ता जाता है, गैसों के अणुओं के बीच गुरुत्वाकर्षण बल बढ़ता जाता है। जब बादलों का आकार काफी बड़ा हो जाता है तब यह स्वयं के गुरुत्वाकर्षण बल के कारण सिकुड़ता चला जाता है, यह सिकुड़ता हुआ घना गैस पिंड आदि तारा (Protostar) कहलाता है। आदि तारा प्रकाश उत्सर्जित नहीं करता है।

⦿ आदि तारे से तारे का निर्माण (Formation of star from protostar): आदि तारा, अत्यधिक सघन गैसीय द्रव्यमान है जो विशाल गुरुत्वाकर्षण बल के कारण आगे भी संकुचित होता रहता है। ज्योंहि आदितारा आगे संकुचित होना आरंभ करता है, गैस के बादल में उपस्थित हाइड्रोजन परमाणु अधिक जल्दी जल्दी परस्पर टकराते हैं। हाइड्रोजन परमाणु के ये टक्कर आदि तारे के ताप को अधिकाधिक बढ़ा देते हैं। आदि तारे के संकुचन की प्रक्रिया लाखों वर्षों तक चलती रहती है जिसके दौरान आदि तारा में आन्तरिक ताप, आरंभ में मात्र -173° C से लगभग `10^{7}`°C तक बढ़ता है। इस अत्यधिक उच्च ताप पर, हाइड्रोजन की नाभिकीय संलयन अभिक्रियाएँ होने लगती हैं। इस प्रक्रिया में चार छोटे हाइड्रोजन नाभिक संलयित होकर बड़े हीलियम नाभिक बनाते हैं और ऊष्मा तथा प्रकाश के रूप में ऊर्जा की विशाल मात्रा उत्पन्न होती है। हाइड्रोजन के संलयन से हीलियम बनने के दौरान उत्पन्न ऊर्जा आदि तारा को चमक प्रदान करता है और वह तारा बन जाता है।

⦿ तारे के जीवन का अंतिम चरण (Final Stages of a Star's life): अपने जीवन के अन्तिम चरण के पहले भाग में, तारा लाल (रक्त) दानव प्रावस्था (Red giant phase) में प्रवेश करता है, इसके बाद उसका भविष्य उसके प्रारंभिक द्रव्यमान पर निर्भर करता है। यहाँ दो स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं-

1. यदि तारे का प्रारंभिक द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान के तुल्य होता है, तो रक्त दानव तारा अपने प्रसारित बाह्य आवरण को खो देता है और उसका क्रोड सिकुड़ करके श्वेत वामन तारा (White dwarf star) बनाता है जो अंततोगत्वा अंतरिक्ष में पदार्थ के सघन पिंड के रूप में नष्ट हो जाता है।

2. यदि तारे का प्रारंभिक द्रव्यमान, सूर्य के द्रव्यमान से काफी अधिक होता है, तो उससे बना रक्त दानव तारा, अधिनव तारे (Supernova star) के रूप में विस्फोट करता है, और इस विस्फोटित अधिनव तारे का क्रोड संकुचित होकर न्यूट्रॉन तारा (Neutron star) अथवा कृष्ण छिद्र (Black hole) बन जाता है।

⦿ रक्त-दानव प्रावस्था (Red Giant phase): आरंभ में, तारों में मुख्यतः हाइड्रोजन होती है। समय बीतने के साथ, हाइड्रोजन केन्द्र से बाहर की ओर, हीलियम में परिवर्तित हो जाती है। अब, जब तारे के क्रोड में उपस्थित सम्पूर्ण हाइड्रोजन, हीलियम में परिवर्तित हो जायेगी तो क्रोड में संलयन अभिक्रिया बंद हो जायेगी। संलयन अभिक्रियाओं के बंद हो जाने के कारण, तारे के क्रोड के भीतर दाब कम हो जायेगा, और क्रोड अपने निजी गुरुत्व के तहत संकुचित होने लगेगा। लेकिन तारे के बाहरी आवरण में कुछ हाइड्रोजन बची रहती है,जो संलयन अभिक्रिया कर ऊर्जा विमुक्त करती रहेगी (परन्तु तीव्रता बहुत ही कम होगी)। इन सभी परिवर्तनों के कारण, तारे में समग्र संतुलन गड़बड़ हो जाता है और उसे पुनः व्यवस्थित करने के उद्देश्य से, तारे को उसके बाहरी क्षेत्र में प्रसार करना पड़ता है, जबकि गुरुत्वाकर्षण बलों के प्रभाव के कारण उसके क्रोड में संकुचन होता है। अतः सामान्य तारे से रक्त दानव तारे में परिवर्तन में, तारे का क्रोड सिकुड़ता है जबकि बाहरी आवरण में अत्यधिक प्रसार होता है। यह रक्त दानव तारा कहलाता है क्योंकि यह रंग में लाल और आकार में दानवाकार होता है। हमारा अपना तारा सूर्य, अब से लगभग 5000 मिलियन वर्षों के बाद रक्त दानव तारे में बदल जायेगा। सूर्य का प्रसारित बाहरी आवरण तब इतना बड़ा हो जाएगा कि यह अन्तर ग्रहों जैसे बुध, शुक्र एवं पृथ्वी को भी निगल जाएगा। तारा, रक्त-दानव प्रावस्था में अपेक्षाकृत थोड़े समय ही रहता है क्योंकि इस अवस्था में यह नितान्त अस्थायी रहता है।

⦿ श्वेत वामन तारे का निर्माण (Formation of white dwarf star): जैसा कि ऊपर बताया गया है कि तारा जब रक्त दानव प्रावस्था में पहुँचता है, तो उसका भविष्य उसके द्रव्यमान पर निर्भर करता है। जब रक्त-दानव तारा का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान के तुल्य होगा तो वह अपना प्रसारित बाह्य आवरण खो देगा, केवल उसका क्रोड बचा रहेगा। यह हीलियम क्रोड गुरुत्वाकर्षण के कारण धीरे-धीरे द्रव्य के अत्यधिक सघन पिंड में संकुचित होगा। हीलियम क्रोड के इस अत्यधिक संकुचन के कारण क्रोड का ताप अत्यधिक बढ़ जाएगा व नाभिकीय संलयन अभिक्रियाओं का एक अन्य सेट प्रारंभ हो जाएगा जिसमें हीलियम भारी तत्वों जैसे कार्बन में परिवर्तित होगा, और ऊर्जा की अत्यधिक विशाल मात्रा निर्मुक्त होगी। इस प्रकार के क्रोड के सम्पूर्ण हीलियम थोड़े ही समय में कार्बन में परिवर्तित हो जाएगी और तब पुनः संलयन अभिक्रियाएँ पूर्णतः रूक जाएगी। अब ज्योंहि तारे के भीतर उत्पन्न हो रही ऊर्जा बंद हो जाएगी, तारे का क्रोड उसके अपने भार के कारण सिकुड़ने लगेगा और वह श्वेत-वामन तारा (White dwarf star) बन जाएगा। श्वेत वामन एक मृत तारा है, क्योंकि यह संलयन प्रक्रिया द्वारा कोई नवीन ऊर्जा नहीं उत्पन्न करता है। श्वेत-वामन तारा, जब अपनी संचित सम्पूर्ण ऊर्जा खो देता है, तो वह चमकना बंद कर देगा। इसके बाद श्वेत-वामन तारा कृष्ण वामन (Black dwarf) हो जाएगा और अंतरिक्ष में पदार्थ के सघन पिंड के रूप में विलीन हो जाएगा। श्वेत-वामन तारे का घनत्व लगभग 10,000kg/`m^{3}` होता है।

⦿ अधिनव तारे तथा न्यूट्रॉन तारे का निर्माण (Formation of Supernova star and Neutron star): यदि किसी तारे का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान से बहुत अधिक हो तो रक्त दानव प्रावस्था के क्रम में इसके हीलियम क्रोड के संकुचन से विमुक्त नाभिकीय ऊर्जा बाहरी आवरण में तेज दमक के साथ विस्फोट उत्पन्न कर देती है। यह विस्फोट आकाश को कई दिनों तक प्रकाशित करता है। ऐसा विस्फोटक तारा अधिनव तारा (Supernova) कहलाता है। सुपरनोवा विस्फोट के बाद भी इसके क्रोड का संकुचन होते रहता है और वह न्यूट्रॉन तारा बन जाता है। हमारी मंदाकिनी दुग्धमेखला में न्यूट्रॉन तारों की संख्या का अनुमान लगभग `10^{8}` लगाया गया है, जिनमें से लगभग एक हजार ऐसे तारों को देखा गया है। न्यूट्रॉन तारे का घनत्व नाभिकीय घनत्व की कोटि का (`10^{17}`kg/`m^{3}`) होता है। न्यूट्रॉन तारों का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान का लगभग दो गुना तथा त्रिज्या लगभग 10 किमी. होती है। यह अदीप्त होता है तथा सीधे तौर पर नहीं देखा जा सकता है।

⦿ कृष्ण छिद्र (Black Hole): न्यूट्रॉन तारे का भविष्य भी उसके द्रव्यमान पर निर्भर करता है। अनुमान के अनुसार भारी न्यूट्रॉन तारों का संकुचन अनिश्चित काल तक हो सकता है। इसी क्रम में जब m द्रव्यमान का एक न्यूट्रॉन तारा संकुचित होकर त्रिज्या r = 2Gm/`c^{2}` (जहाँ c प्रकाश की चाल तथा G गुरुत्वाकर्षण नियतांक है) प्राप्त कर ले तब वह कृष्ण छिद्र (Black Hole) बन जाता है। सर्वप्रथम मिचेल (Mitchell) ने कृष्ण छिद्र के अस्तित्व की कल्पना की थी। कृष्ण छिद्र अपने पृष्ठ से किसी चीज का, यहाँ तक कि प्रकाश का भी पलायन नहीं होने देते हैं। कारण यह है कि कृष्ण छिद्रों में अत्यधिक आकर्षण बल होता है। कृष्ण छिद्रों से प्रकाश भी पलायन नहीं कर सकता है इसीलिए कृष्ण छिद्र अदृश्य होते हैं, वे देखे नहीं जा सकते हैं। इसकी उपस्थिति को, आकाश में उसके पड़ोसी पिंडों पर उसके गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र के प्रभाव द्वारा केवल महसूस किया जा सकता है।

महान भारतीय वैज्ञानिक चन्द्रशेखर ने उन तारों का विस्तृत अध्ययन किया. जो श्वेत वामन तारों में परिवर्तित होकर अपना जीवन समाप्त करते हैं। चन्द्रशेखर ने निष्कर्ष निकाला कि सूर्य के द्रव्यमान के 1.44 गुना से कम द्रव्यमान वाले तारे, श्वेत वामन तारे के रूप में समाप्त होते हैं और सूर्य के द्रव्यमान के 1.44 गुना से अधिक द्रव्यमान के तारे, अधिनव तारे के रूप में विस्फोट करते हैं जो न्यूट्रॉन तारों या कृष्ण छिद्र में परिवर्तित होकर अपना जीवन समाप्त करते हैं। सौर द्रव्यमान या सूर्य के द्रव्यमान के 1.44 गुना की अधिकतम सीमा (तारे के लिए श्वेत वामन के रूप में अपना जीवन समाप्त करने के लिए) को चन्द्रशेखर सीमा (Chandrasekhar limit) के नाम से जाना जाता है। अर्थात (`M_{Star}\leq 1.44M_{Sun}`) star को चन्द्रशेखर सीमा कहते हैं। इसी सिद्धान्त के लिए डॉ. सुब्रह्मण्यम चन्द्रशेखर को 1983 ई. में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

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